________________ त्रयीसमुद्देशः 35 ब्राह्मण आदि के स्वाभाविक धर्मों का वर्णन दीना प्रकृतिः प्रायेण ब्राह्मणानाम् // 31 // ब्राह्मणों का स्वभाव प्रायः दीन-अर्थात् विनम्र होता है / बलात्कारस्वभावः क्षत्रियाणाम् // 32 // क्षत्रियों का स्वभाव बलात्कार-बल प्रदर्शन होता है। निसर्गतः शाठ्यं किरातानाम् // 33 // कोल, भील आदि स्वभावतः शठ होते हैं। ऋजुवक्रशीलता सहजा कृषीवलानाम् // 34 // किसानों में स्वाभाविक नम्रता और स्वाभाविक कठोरता भी होती है। द्रामावसानः कोपो ब्राह्मणानाम् / / 35 // ब्राह्मणों के क्रोध का अन्त दान में होता है अर्थात् दान पाने से ब्राह्मण सन्तुष्ट हो जाता है। . प्रणामावसानः कोपो गुरूणाम् / / 36 // गुरुओं के क्रोध का अन्त प्रणाम करने से होता है। . प्रमाणावसानः कोपः क्षत्रियाणाम् / / 37 / / क्षत्रियों के क्रोध का अन्त प्राण लेकर ही होता है / प्रियवचनावसानः कोपो वणिग् जनानाम् / / 38 // 'देश्यों के क्रोध की शान्ति. मीठे वचनों से होती है। बैश्यानां समुद्धारकप्रदानेन कोपोपशमः // 36 // वेश्यों के क्रोध की शान्ति उनका कर्ज चुका देने से हो जाती है। (निश्चितैः परिचितश्च सह व्यवहारो वणिजां निधिः // 40 // ) जो स्थायी रूप से एक जगह रहते हों और भली भांति परिचित हों उन के संग लेन-देन का व्यवहार करना वैश्यों के लिये 'निधि' रूप है। क्योंकि इनको दिये गये ऋण के न वसूल हो सकने का भय नहीं रहता और वैश्यों की ऐश्वर्य-वृद्धि होती हैं। अण्डभयोपधिभिवंशीकरणं नीच जात्यानाम् / / 41 // . दण्ड-भय और छल-छद्म पूर्ण व्यवहार नीच जाति के लोगों को वश में करने का उपाय है। इति त्रयो समुद्देशः॥