________________ त्रयीसमुद्देशः त्रयी विद्या से लाभत्रयीतः खलु वर्णाश्रमाणां धर्माधर्मव्यवस्था // 2 // इस त्रयी विद्या के आधार से चारों वर्ण और चारों आश्रम के लोगों की धर्म और अधर्म की व्यवस्था होती है। स्वपक्षानुरागप्रवृत्त्या सर्वे समवायिनो लोकव्यवहारेष्वधिक्रियन्ते // 3 // इस त्रयी विद्या के द्वारा समस्त सम्प्रदाय के मनुष्य अपने-अपने मतों में सानुराग प्रवृत्त होकर लौकिक व्यवहार के अधिकारी बनते हैं। __ धर्मशास्त्र और वेद की समानता-- धर्मशास्त्राणि स्मृतयो वेदार्थसंग्रहाद् वेदा एव // 4 // धर्मशास्त्र और स्मृति ग्रन्थों में बेदों में प्रतिपादित अर्थ का ही संग्रह हुआ है, अतः ये वेद ही हैं / अर्थात् इनके वचन वेद के तुल्य मान्य है। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य के समानधर्म(अध्ययनं यजनं दानश्च विप्रक्षत्रियवैश्यानां समानो धर्मः॥५॥ अध्ययन, यज्ञ और दान ये तीन ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य के लिये समानरूप से पालन करने योग्य धर्म हैं। द्विजाति का अर्थ(त्रयो वर्णा द्विजातयः // 6 // ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्णों को द्विजाति संज्ञा है।) ब्राह्मणों के नियत कमअध्यापनयाजनं प्रतिग्रहश्च ब्राह्मणानामेव // 7 // ). पढ़ाना, यज्ञ आदि कराना और दान लेना यह ब्राह्मणों का ही कर्म है। ____क्षत्रियों के नियत कर्मभूतसंरक्षणं शस्त्राजीवनं सत्पुरुषोपकारो दीनोद्धरणं रणेऽपलायनं चेति क्षत्रियाणाम् // 8 // ___ जीवों की रक्षा, शस्त्र विद्या द्वारा जीविका चलाना, सत्पुरुषों का उपकार करना, दोनों का दुख से उद्धार करना और संग्राम से विमुख न होना, क्षत्रियों के कर्म हैं। वैश्यों के नियत कर्म- वार्ताजीवनमावेशिकपूजनं सत्रप्रपापुण्यारामदयादानादिनिर्मापणं च विशाम् // 6 // वार्ता अर्थात् कृषि, पशु रक्षा और वाणिज्य, अतिथिसेवा, अन्नसत्र, प्याऊ, पुण्यार्थ गृह धर्मशाला तथा उद्यान आदि की स्थापना एवं निर्माण दया और दान आदि कमों में प्रवृत्त रहना वैश्यों के कर्तव्य हैं।