________________ आन्वीक्षिकीसमुहेशः शरीर का स्वरूप__ भोगायतनं शरीरम् / / 31 // भले-बुरे भोगों का धर ही शरीर है। लोकायतिक का लक्षणऐहिकव्यवहारप्रसाधनपरं लोकायतिकम् // 32 // यह लोक ही सब कुछ है, ऐसा मानकर समस्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराने वाला दर्शन लोकायतिक अथवा नास्तिक दर्शन है। राजा को लोकायत जानना श्रेयस्कर है( लोकायतज्ञो हि राजा राष्ट्रकण्टकानुच्छेदयति // 33 // लोकायत अर्थात् नास्तिक दर्शन को जाननेवाला राजा राष्ट्र की बुराइयों को नष्ट कर देता है। कोई क्रिया सर्वथा निर्दोष नहीं हैन खल्वेकान्ततो यतीनामप्यनवद्यास्ति क्रिया / / 36 // सन्यासियों के भी कर्म-सत्य, अहिंसा आदि सर्वथा निर्दोष नहीं होते। . अत्यन्त दयालुता के दोष(एकान्तेन कारुण्यपरः करतलगतमप्यर्थ रक्षितुं न क्षमः // 35 // ) केवल करुणा में तत्पर मनुष्य अर्थात् अत्यन्त दयालु हथेली में भी रखे हुए अथं की रक्षा नहीं कर सकता। प्रशमैकचित्तं को नाम न परिभवति // 36 // ) सर्वथा शान्त चित्त रहने वाले मनुष्य का फोन नहीं अनादर करता। अपराधी को दण्ड देना राजा का कत्तंव्य है(अपराधकारिषु प्रशमो यतीनां भूषणं न महीपतीनाम् // 37 // ) अपराध करने वाल को दण्डित न करना सन्यासियों को ही शोभा दे सकता है राजा को नहीं। परिणाम शून्य क्रोध और कृपा व्यर्थ है... 'धिक तं पुरुषं यस्यात्मशक्त्या नस्तः कोपप्रसादौ // 38 // जो पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध और प्रसन्नता न प्रशित कर सके वह धिक्कार के योग्य है। विशेषार्थ-जिसके क्रोध से न कोई डर हो और प्रसन्नता से न कोई लाभ ही हो वह पुरुष निन्दनीय है। __ जीवित मृत का लक्षणस जीवन्नपि मृत एव यो न विक्रामति प्रतिकूलेषु // 36 // .. वह पुरुष जीते हुए भी मरा है जो अपने विरुद्ध आचरण करने वालों पर किसी प्रकार के पराक्रम का प्रदर्शन न कर सके।