________________ नीतिषाक्यामृतम् राजा के अयोग्य कार्यन पुनः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकं वा // 3 // शिर मुंडाना अथवा जटा आदि धारण करना राजा का काम नहीं है। राज्य का स्वरूप(राज्ञः पृथ्वीपालनोचितं कर्म राज्यम् // 4 // ) पृथ्वी पर रहने वालों का पालन-पोषण सम्बन्धी कार्य करते रहना ही राजा का राज्य है। पृथ्वी का सच्चा स्वरूप (वर्णाश्रमवती धान्य हिरण्य-पशु-कुप्य वृष्टिप्रदानफला च पृथ्वी ॥शा जिस पर चारों वर्ण और चारों आश्रमों के लोग रहते हों अनेक प्रकार के अन्न जिस पर उत्पन्न हों, और सोना-चांदी, तरह-तरह के पशु पक्षी और तांबा आदि अन्य धातुओं की प्रचुर मात्रा में जहाँ प्राप्ति हो वह पृथ्वी है। (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्राश्च वर्णाः // 6 // 'आश्रम" के भेद(ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थी यतिरित्याश्रमाः // 7 // ) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास ये चार आश्रम हैं। "उपकुर्वाणक" वह्मचारी का स्वरूपस उपकुर्वाणको ब्रह्मचारी यो वेदमधीत्य स्नायात // 8 // जो बेदाध्ययन करने के अनन्तर विवाह करे उसे, उपकुर्वाणक ब्रह्मचारी कहते हैं। ( स्नान की शास्त्रीय परिभाषा) स्नान विशेष का लक्षण(स्नानं विवाहदीक्षाभिषेकः // 6 // विवाह संस्कार की दीक्षा के समय विशेष प्रकार के मन्त्रों से किया गया अभिषेक-जल-प्रोक्षण स्नान है। नैष्ठिक ब्रह्मचारी का स्वरूप(स नैष्ठिको ब्रह्मचारी यस्य प्राणान्तिकमदारकर्म / / 10 // जो मृत्युपर्यन्त विवाह न करे वह नैष्ठिक ब्रह्मचारी है। पुत्र की परिभाषायि उत्पन्नः पुनीते वंशंस पुत्रः // 11 // ) उत्पन्न होकर जो अपने सदाचार आदि से कुल को पवित्र करे वह पुत्र है।