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________________ नीतिवाक्यामृतम् . यहां यह अत्यन्त आश्चर्य का विषय है कि चोरी आवि अन्याय-कर्म के द्वारा उपार्जित धनादि से सुख का लेश मात्र भी उपभोग इस लोक और परलोक में भी निरवधि दुःखदायक होता है / यहां राजदण्ड वहां धर्मराज का। धर्मी और अधर्मी की पहचानसुखदुःखादिभिः प्राणिनामुत्कर्षापकर्षों धर्माधर्मयोर्लिङ्गम् / / 46 // इस जन्म में जीवों के सुख और दुःख का उत्कर्ष तथा अपकर्ष देखकर उसके द्वारा पूर्वजन्म में किये गये धर्म-अधर्म की पहचान होती है। ___ अइष्ट ( देव ) को व्यापक प्रभुता- .. संसार में ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जहाँ अदृष्ट की प्रभुता न हो। विशेषार्थ-अदृष्ट-मनुष्य के नित्य के भोजन-पान से उसके शरीर में अलक्ष्य शक्ति सञ्चित होती है उसी के अनुसार वह सांसारिक कार्य करता है विद्युद् गृह में जल प्रपात आदि से भी इसी प्रकार अलक्ष्य विद्युत् शक्ति उत्पन्न होती है जिससे महान् यन्त्र आदि परिचालित होते हैं और प्रकाश मिलता है / इसी प्रकार मनुष्य के द्वारा नित्य प्रति किये जाने वाले शुभाशुभ कर्म अथवा धर्माधर्म से एक अनिर्वचनीय "अदृष्ट" उत्पन्न होता है जो संचित होता जाता है और उसके अनुसार ही मनुष्य को जन्म-जन्मान्तर में सुख. तथा दुःख मिलते रहते हैं) इति धर्मसमुद्देशः 2. अर्थसमुद्देशः अर्थ का लक्षण-- (यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः // 1 // जिससे समस्त कार्य अथवा योजनाएं सिद्ध हों वह अर्थ ( धन ) है / धनी कोन होता हैसोऽर्थस्य भाजनं योऽर्थानुबन्धेनार्थमनुभवति // 2 // ) धनी वह होता है जो अर्थानुबन्ध से अर्थ का उपभोग करता है। अर्थानुवन्ध का लक्षणअलब्धलाभो, लब्धपरिरक्षणं रक्षितपरिवर्द्धनं चार्थानुबन्धः / / 3 // अप्राप्त धन को प्राप्त करना, प्राप्त धन की रक्षा करना और सुरक्षित धन को वृद्धि करना अर्थानुबन्ध है।)
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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