________________ 168 नीतिवाक्यामृतम् . (स वह्नः प्रभावो यत्प्रकृत्या शीतलमपि जलं भवत्युष्णम् / / 56 |) यह अग्नि का प्रभाव है कि स्वभावतः शीतल भी जल उष्ण हो खाता है। (सुचिरस्थायिनं कार्यार्थी साधूपचरेत् // 600 किसी कार्य को सिद्ध करने के लिये किसी स्थायी प्रामाणिक अथवा स्थिर बुद्धिवाले की सम्यक् सेवा करनी चाहिए। (स्थितैः सहार्थोपचारेण व्यवहारं न कुर्यात् / / 61 // किसी स्थित अर्थात् धन-धान्य की प्रचुरता के कारण स्थायी अर्थात् धनी व्यक्ति के साथ छोटे आदमी को अर्थ-व्यवहार अर्थात् रुपये पैसे के लेन देन का सम्बन्ध नहीं करना चाहिए / ) (सत्पुरुषपुरश्चारितया शुभमशुभं वा कुर्वतो नास्त्यपवादः प्राणव्यापादो वा / / 62 // सत्पुरुषों की सेवा में लगे रहने पर भला-बुरा कुछ भी करे उससे उसकी निन्दा अथवा प्राण सङ्कट नहीं होता। (सम्पत् सम्पदमनुबध्नाति विपच्च विपदम् // 6 // सम्पत्ति से सम्पत्ति बढ़ती है और विपत्ति से विपत्ति / ' (गोरिव दुग्धार्थी को नाम कार्यार्थी परस्य सञ्चारं विचारयति // 64 // ) जिस प्रकार दूध चाहने वाला यह कब सोचता है कि गौ क्या भक्ष्य. अभक्ष्य खाती है इसी प्रकार अपना प्रयोजन सिद्ध करने वाला व्यक्ति भी उस व्यक्ति के कार्य-अकार्य पर विचार नहीं करता। (शास्त्रविदः खियश्चानुभूतगुणाः परम् आत्मानं रंजयन्ति / / 65 // शास्त्र ज्ञानी और स्त्रियां गुणों के अनुभव को प्राप्त कर केवल अपने को सुखी बनाती हैं / अर्थात् शास्त्रज्ञ पुरुष विद्या के गुण से आत्मानन्द में मग्न रहता है और स्त्रियां अपने गुणों के कारण दूसरों की प्रिय बनकर अपने को सुखी करती हैं। (चित्रगतमपि राजानं नावमन्येत, क्षात्रं हि तेजो महती पुरुषदेवता / / 66 / ) . चित्र में भी बने हुए राजा का अपमान नहीं करना चाहिए / क्षत्रियत्व का तेज महान् देवता रूप में वर्तमान होता है। कार्यमारभ्य पर्यालोचः शिरो मुण्डयित्वा नक्षत्रप्रश्न इव // 6 // काम प्रारम्भ करने के अनन्त र उमके शुभाशुभ पर विचार करना वैसा ही व्यर्थ है जैसे शिर का मुण्डन करा लेने के अनन्तर शुभ नक्षत्र पूछना। ..