________________ धर्मसमुद्देशः परोपदेश की सहजतासुलभः खलु कथक इव परस्य धर्मोपदेशे लोकः // 28 // देवालयों में कथा बांचने वाले की तरह दूसरों को धर्मोपदेश करने वाले व्यक्ति सर्वत्र सुलभ होते हैं। प्रतिदिन के दान और तप की महिमाप्रत्यहं किमपि नियमेन प्रयच्छतस्तपस्यतो वा भवन्त्यवश्यं महीयांसः परे लोकाः // 21 / / ) ___ प्रतिदिन नियम पूर्वक कुछ न कुछ दान और तपस्या करनेवाले व्यक्ति को निश्चय हो महान् परलोक प्राप्त होते हैं / प्रतिदिन का स्वल्प संचय भी विशेष फलवान होता है(कालेन संचीयमानः परमाणुरपि जायते मेरुः // 30 // नित्य संचय करते रहने पर छोटी से छोटी वस्तु भी समय पाकर सुमेर बन जाती है। धर्म, ज्ञान और धन का प्रतिदिन सङ्ग्रह करना चाहिए(धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं लवोऽपि सङ्गृह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिकः / / 31 / ) धर्म, ज्ञान और धन का प्रतिदिन लेशमात्र भी सङ्ग्रह करते रहने पर समुद्र से भी अधिक हो जाता है। नित्य धर्माचरण न करने के दोषधर्माय नित्यमनाश्रयमाणानामात्मवञ्चनं भवति // 32 // धर्म के निमित्त नित्य कुछ न करना आत्मवञ्चना है। . . पुण्य प्राप्ति के लिये निस्य प्रयत्न करना चाहिएकस्य नाम एकदेव संपद्यते पुण्यराशिः // 33 // एक बार ही किस को पुण्यराशि प्राप्त हो जाती है ? अर्थात् अनायास ही किसी को पुण्य-पुंज नहीं प्राप्त हो सकता धीरे-धीरे क्रमशः पुण्य करते रहने पर ही पुण्य-पुञ्ज एकत्र होता है। ___ अनुद्योगी के मनोरथों की निन्दाअनाचरतो मनोरथाः स्वप्नराज्यसमाः॥ 34 // उद्यम न करने वाले व्यक्ति के मनोरथ स्वप्न में प्राप्त राज्य के समान क्षणिक होते हैं। धर्म के लाभ जानते हुए भी अधर्माचार की निन्दाधर्मफलमनुभवतोऽप्यधर्मानुष्ठानमनात्मज्ञस्य // 35 // . जो धर्म के फल का उपभोग करता हुमा भी अधर्म करता है वह मूर्ख है।