________________ नीतिवाक्यामृतम् .. कर्तव्याकर्तव्य में शास्त्र की प्रामाणिकता विधि-निषेधावैतिवायत्तौ // 24 // विधि और निषेध ऐतिह्य ( आगमों ) के अधीन हैं। अर्थात् कौन सा कार्य करना चाहिए कौन नहीं करना चाहिए इसका ज्ञान शास्त्रों से प्राप्त करे। . विशेषार्थ-साय शास्त्र में प्रत्यक्ष अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गये हैं / नैयायिक इन तीनों के साथ उपमान को भी प्रमाण मानते हैं / वेदान्ती और मीमांसक इन चारों के साथ अर्थापत्ति और अनुपलब्धि को भी प्रमाण मानते हैं। पौराणिक इनके अतिरिक्त 'ऐतिह्य' को भी प्रमाण मानते है / जो बात परम्परा से कही सुनी जाती ही और उसका कोई निश्चित वक्ता न कहा जा सके वही ऐतिह्य है / जैसे इस पेड़ पर भूत रहता है / इस मन्दिर के देवता रात को गांव के चारों ओर घूमते हैं यह लोकापवाद "ऐतिह्य" है। नीतिवाक्यामृत के इस ऐतिह्म का अर्थ जनश्रुति ही है। इसीलिए इसके अग्रिम सूत्र में कहा जा रहा है किस तरह के शास्त्र प्रमाण मानने चाहिए__तत्खलु सद्भिः श्रद्धेयम् ऐतिह्यम् , यत्र न प्रमाणबाधा पूर्वापरविरोधो वा // 25 // सत्पुरुषों को उसी ऐतिह्य पर श्रद्धा करनी चाहिए जो प्रमाणों के प्रतिकूल न हो और जिस में पूर्वापर विरोध न होता हो। चंचल मनवाले के नियमाचार की व्यर्थता(हस्तिस्नानमिव सर्वानुष्ठानम् , अनियमितेन्द्रियमनोवृत्तीनाम् // 26 // *जिस पुरुष की इन्द्रियां और मन के व्यापार नियमित नहीं हैं उस की समस्त सत् क्रिया हाथी के स्नान की तरह है।) विशेषार्थ-हाथी नहाने के बाद पुनः अपनी सुंड से अपने ऊपर धूल गलकर गन्दा हो जाता है। इसी प्रकार चंचल मन और इन्द्रिय वाले व्यक्ति शुभानुष्ठान के साथ असदनुष्ठान कर अपना शुभ अनुष्ठान व्यर्थ कर देते हैं। ज्ञान के अनुकूल स्वयं आचरण न करने की निन्दा(दुर्भगाभरणमिव देहखेदावहमेव ज्ञानं स्वयम् अनाचरतः / / 26 / ) ज्ञान प्राप्त कर स्वयम् उसके अनुकूल आचरण न करने वाले व्यक्ति का ज्ञान पति का प्रेम और आदर न प्राप्त कर सकने वाली अभागिनी स्त्री के आभूषण धारण के समान व्यर्थ देह-क्लेश-कारक ही होता है। (प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता-कालिदास )