________________ 182 नीतिवाक्यामृतम् . संग्राम में पकड़े गये आक्रमणकारियों को सरकारपूर्वक अर्थात् कुछ वन आदि उपहार देकर छोड़ देना चाहिए / (मतिनदीयं नाम सर्वेषां प्राणिनामुभयतो वहति पापाय धर्माय च, तत्राय स्रोतोऽतीव सुलभ, दुर्लभं तद् द्वितीयमिति / / 77 // ___इस संसार में समस्त प्राणियों के दो पार्यों में पाप और पुण्य के लिये मति अर्थात् विवेकरूपी सरिता प्रवाहित हो रही है, जिसमें पाप का स्रोत अत्यन्त सुलभ है, किन्तु धर्म का-पुण्य का स्रोत दुर्लभ है। अर्थात् मनुष्य पाप की ओर सहज रूप से प्रवृत्त होता है; किन्तु धर्म की ओर कठिनता से / (सत्येनापि शप्तव्यम् / / 76 // शत्रु के हृदय में विश्वास उत्पन्न कराने के लिये सत्य भाव से भी शपथ करनी चाहिए। महतामयप्रदानवचनमेव शपथः // 80 अभयदान देना ही महान पुरुषों की शपथ है / (सतामसतां च वचनायत्ताः खलु सर्वे व्यवहाराः, स एव सर्वलोकमहनीयो यस्य वचनमन्यमनस्कतयाप्यायातं भवति शासनम् // 81 संसार के समस्त व्यवहार सज्जनों और असज्जनों के वचन के अधीन हैं / वही आदमी सब लोगों से महान् और पूज्य है जो उदासीन भाव से भी जो कुछ कह देता है वह उसका अनुशासन हो जाता है / अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो जिस किसी रूप में भी कह दे और उसका निर्वाह करे वही सर्वश्रेष्ठ है।) (नयोदिता वाग्वदति सत्या ह्येषा सरस्वती // 1 // नीतियुक्त वचन ही सत्य सरस्वती का रूप है। (व्यभिचारिवचनेषु नैहिकी पारलौकिकी वा क्रियाऽस्ति / / 2 / / वचन का पालन न करने वालों का इहलोक तया परलोक दोनों ही बिगड़ता है। (न विश्वासघातात् परं पातकमस्ति // 3 // विश्वासघात से बढ़कर दूसरा पातक नहीं है। (विश्वासघातकः सर्वेषामविश्वासं करोति // 84 // विश्वासघातक व्यक्ति सर्व पर स्वयं ही अविश्वास करता है।) असत्यसन्धिषु कोशपानं ? जातानुजातान् हन्ति / / 85 / / असल्य प्रतिज्ञ पुरुषों का शपथ करना उनके सन्तति का विनाश कर देता है। 1. नाप्रेरिता वाग देवता वदति /