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________________ - नीतिवाक्यामृतम 180 (उपचीयमानो घटेनेवाश्मा हीनेन विग्रहं कुर्यात् / / 60 // जब अपना अम्युदय हो रहा हो तब अपनी लधुसेना के कारण हीनशक्ति होकर भी महान् शत्रु के साथ युद्ध करना चाहिए / पत्थर का छोटा सा भी टुकड़ा घड़े से टक्कर लेकर उसे फोड़ डालता है। (दैवानुलोम्य, पुण्यपुरुषोपचयोऽप्रतिपक्षता च विजिगीषोरुप. चयः // 61D देव की अनुकूलता, उत्तम पुरुषों का समागम, और विरोधियों का अभाव यह सब विजिगीषु के अभ्युदय के लक्षण हैं / (पराक्रमककशः प्रवीरानीकश्चेद् हीनः सन्धाय साधूपचरितव्यः / / 62 // ____ शत्रु यदि प्रबल पराक्रमी और वीर पुरुषों की सैन्यशक्ति से सम्पन्न हो तो हीन विजिगीषु को सन्धि के द्वारा सम्यक् व्यवहार करना चाहिए।) (दुःखामर्ष तेजो विक्रमयति / / 63 / / दुःख से अर्थात् शत्रु द्वारा पीड़ित होने पर क्रोध होता है जिससे तेज. स्विता आती है और पुरुष पराक्रम के लिये ततर होता है / ) . (स्वजीविते हि निराशस्यावार्यो भवति वीर्यवेगः / / 64 // ) अपने प्राणों की आशा न रखकर जो युद्ध में प्रवृत्त होता है उसका शोयं. वेग अजेय होता है / अर्थात् 'कायं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि' इस संकल्प के साथ जो संग्राम भूमि में अवतीर्ण होता है और अपने प्राणों का मोह छोड़ कर लड़ता है उस योद्धा के आक्रमण के वेग को रोकना दुष्कर होता है। (लघुरपि सिंहशावो हन्त्येव दन्तिनम् / / 65 / / ) छोटा भी सिंहशावक हाथी को मार ही डालता है। नातिभग्नं पीडयेत् // 66) (जो शत्रु अत्यन्त दलित हो चुका हो उसे क्लेश न दे। अर्थात् युद्ध में पराजय के कारण अत्यन्त दुर्दशाग्रस्त होकर जो भाग रहा हो उसका पीछा न करना चाहिए / सम्भव है वह अपने जीवन से निराश होकर 'मरता क्या न करता' उक्ति के अनुसार पुनः समस्त शक्ति से कोई उपद्रव कर दे और उससे अपनी हानि हो जाय / (शौर्यकधनस्योपचारो मनसि तच्छागस्येव पूजा / / 66 // प्रबल पराक्रमी के प्रति सम्मान का बाह्य प्रदर्शन उसके मन में वैसा ही दोष उत्पन्न करता है जैसा कि देवता की पूजा न करके उसके बकरे की पूजा करने से देवता को रोष होता है।
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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