________________ युद्धसमुद्देशः 176 पति ने अपने स्वामी के साथ कूट पह-झूठी लड़ाई करके अपने स्वामी के विपक्षी विरूपाक्ष का विश्वास भाजन बनकर उसे मार डाला था। (बलमपीडयन् परानभिषेणयेत् / / 51 // ) अपनी सेना को किञ्चित् भी कष्ट न देकर अर्थात् खूब सन्तुष्ट रखकर उस सेना के साथ शत्रु-देश पर आक्रमण करना चाहिए / दीर्घप्रयाणोपहतं बलं न कुर्यात् स तथाविधमनायासेन भवति परेषां साध्यम् / / 52 // अपनी सेना को बहुत लन्बा प्रवास का अवसर न देना चाहिए इससे सेना खिन्न हो उठती है और सुखपूर्वक शत्रु के द्वारा अपनी ओर मिलाई जा सकती है / (अर्थात् सेना के आदमियों को कुछ दिनों बाद अपने घर जाने का अवकाश भी देते रहना चाहिए जिससे उनके मन में क्षोभ न उत्पन्न करे। (न दायादपरः परबलस्याकर्षणमन्त्रोऽस्ति // 53 // . दायाद-सगोत्रों से बढ़कर शत्रु की सेना के आकर्षण का दूसरा कोई मन्त्र नहीं है। शत्रु के पट्टीदार ही ऐसे व्यक्ति होते हैं जो राज्यप्राप्ति के लोभ से बड़ी सरलता के साथ अपने पक्ष में मिलाये जा सकते हैं अतः विप्रहकाल में यदि शत्रु के सगोत्र पट्टीदार किसी रूप से "पनी ओर मिलाये जा सकें तो अत्युत्तम है। (यस्याभिमुखं गच्छेत्तस्यावश्यं दायादानुत्थापयेत् // 54 // ) जिसके ऊपर आक्रमण करे उसके दायादों को अवश्य उभाड़े या भड़कावे / : कण्टकेन कण्टकमिव परेण परमुखरेत् // 55 // जिस प्रकार एक कांटे से दूसरा शरीर में गड़ा हुमा कांटा निकाला जाता है उसी प्रकार शत्रु के सहारे शत्रु का नाश करे। बिल्वेन हि बिल्वं हन्यमानमुभयथाप्यात्मनो लाभाय // 56 // बेल से बेल को तोड़ने से दोनों प्रकार से अपना लाभ होता है। दोनों ही फल अगर टूट गये तो दोनों का उपयोग कर लिया जा सकेगा। यावत्परेणापकृतं तावतोऽधिकमपकृत्य सन्धि कुर्यात् / / 57 // शत्रु ने जितनी अधिक अपनी हानि की हो उससे अधिक उसकी हानि करने के अनन्तर उससे सन्धि कर ले। नातप्तं लोहं लोहेन सन्धत्ते // 58 // ) विना तपाया हुआ लोहखन्ह दूसरे लोहखण्ड से नहीं जुड़ता। (तेजो हि सन्धाकारणं, नापराधस्य क्षान्तिरूपेक्षा वा / / 56 // ऐक्य अथवा सन्धि का कारण तेज और प्रभाव होता है न कि अपराधों का क्षमा अथवा उपेक्षा करना।