________________ 170 नीतिवाक्यामृतम् कारक है / अर्थात् मित्र प्राप्ति से सुवर्ण प्राप्ति अच्छी और उससे भी अच्छो भूमि की प्राप्ति है। (हिरण्यं भूमिलाभाद् भवति मित्रश्च हिरण्यलाभादिति // |) भूमि के लाभ से सुवर्ण होता है और सुवर्ण अर्थात् धन से मित्र प्राप्ति होती है। (शत्रोमित्रत्वकारणं विमृश्य तथा चरेद् यथा न कञ्च्यते // 30 // शत्र पदि मित्रता करना चाहे तो उसकी मित्रता के कारणों पर विचार करके उसके साथ ऐसा सतर्क व्यवहार रक्खे. जिससे वञ्चित न होना पड़े। गुढोपायेन सिद्धकार्यस्यासंवित्तिकरणं सर्वा शङ्कां दुरपवादं च करोति // 81 // जिस व्यक्ति ने गूढ़ उपायों द्वारा राजा का कार्य सिद्ध किया हो उसका अनादर करने से उस कार्य सिद्ध करने वाले के मन में अनेक प्रकार की आशङ्काएं उत्पन्न होती हैं और राजा का भी कृतघ्न के रूप में अपयश होता है। - (गृहीतपुत्रदारानुभयवेतनान कुर्यात् / / 82 / / दोनों ओर से वेतन पाने वाले के स्त्री पुत्रों का संरक्षण राजा को करना चाहिए / उभय वेतन ऐसा चतुर वह व्यक्ति है जो एक राजा का वेतन भोगी गुप्तचर होकर दूसरे राज्य में भेद लेने जाय किन्तु वहां भी कुछ ऐसा व्यव. हार प्रदर्शित करे जिससे वहां विश्वस्त बनकर वहां भी वेतन मिले।) ' (शत्रमपकृत्य भूदानेन तदायादानात्मनः सफलयेत् क्लेशयेद्वा / / 8 / / __ शत्रु का अपकार अर्थात् उसकी धन-धरती छीन कर उसे उसके दायादों को देकर उन्हें अपना बना ले अथवा वे बलिष्ठ होकर सर उठावें तो उनको दण्डित और पीडित करे।) (परविश्वासजनने सत्यं शपथः प्रतिभूः प्रधानपुरुषप्रतिग्रहो वा हेतुः // 64 // ___शत्रु पर विश्वास चार कारणों से किया जा सकता है-उसका सत्य व्यवहार, शपथ ग्रहण, जमानत, और उसके प्रधान अमात्य आदि का अपनी ओर प्रहण अर्थात् पूर्णरूप से मिल जाना। सहस्रकीयः पुरस्तामाभः शतकीयः पश्चात् कोप इति न यायात् / / 85 // प्रथम तो प्रचुर लाभ हो किन्तु अन्तमें कुछ उपद्रव की संभावना हो तो शत्रु पर आक्रमण करने के लिये प्रस्थान न करे /