________________ षाड्गुण्यसमुद्देशः 167 (रज्जवलनमिव शक्तिहीनः संश्रयं कुर्याद् यदि न भवति परेषामामिषम् / / 55 / ) रस्सी बटने के समान, शक्तिहीन राजा शत्रु को आत्मसमर्पण कर दे यदि इससे वह किसी दूसरे राजा का भक्ष्य अथवा वध्य न होता हो। ( रस्सी में पतले-पतले अनेक सूत्र मिलकर उसे सुदृढ बना देते हैं उसी प्रकार शक्तिहीन भी दूसरे का आश्रय ग्रहण कर पुष्ट हो जाय। (बलवद् भयादबलवदाश्रयणं हस्तिभयादेरण्डाश्रयणमिव / / 56 ) बलवान् शत्रु के भय से शक्तिहीन का आश्रय प्रहण करना वैसा ही उपहासास्पद है जैसे हाथी के भय से रेंड के पेड़ का आश्रय लेना। (स्वयमस्थिरेणास्थिराश्रयणं नद्यां वहमानेन वहमानस्याश्रयणमिव / / 57 // शत्रु के भय से जब राजा स्वयम् अस्थिर हो तब अन्य किसी अस्थिर राजा का आश्रय लेना वैसा ही है जैसा कि नदी में बहते या डूबते हुए व्यक्ति का दूसरे बहते या डूबते व्यक्ति को पकड़ना। वरं मानिनो मरणं न परेच्छानुवर्तनादात्मविक्रयः॥ 58 / / शत्र की इच्छाओं का अनुसरण करते हुए जीवित रहना आस्मविक्रय है। मानी पुरुष के लिये मर जाना उससे अच्छा है : आयतिकल्याणे सति कस्मिश्चित सम्बन्धे परसंश्रयः श्रेयान् // परिणाम काल में यदि कल्याण सुनिश्चित हो तो किसी कार्य के सम्बन्ध में शत्रु का संश्रय श्रेयस्कर है। निधानादिव न राजकार्येषु कालनियमोऽस्ति // 6 // कहीं पर शोध में अकस्मात् मिली हुई निधि जिस प्रकार तत्काल प्रहण कर ली जाती है उसी प्रकार राजकीय कार्य में समय का कोई नियम नहीं है। किसी समय मी राजाज्ञा-वश कोई भी काम करना पड़ सकता है तथा राज. कार्य तत्काल ही कर डालना चाहिए / (मेघवदुत्थानं राजकार्याणामन्यत्र च शत्रोः सन्धिविग्रहा. भ्याम् // 6 // जिस प्रकार बहुधा आकाश में अकस्मात बादल छा जाते हैं उसी प्रकार राजकार्य भी अकस्मात् उठ खड़े होते हैं और किये जाते हैं, किन्तु शत्र से सन्धि और विग्रह सम्बन्धी कार्य सहसा नहीं किन्तु विचारपूर्वक करना चाहिए। (द्वैधीभावं गच्छेद् यदन्योऽवश्यमात्मना सहोत्सहते // 62 // यदि शत्रु का शत्रु निश्चित रूप से अपने प्रति उत्साहयुक्त हो अर्थात् साथ