SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 166 नीतिवाक्यामृतम् बलवान् के साथ सन्धि करके अन्य पर चढ़ाई कर देना 'द्वैधीभाव' है / अथवा अकेले ही शत्रु से सन्धि करके अनन्तर विग्रह-युद्ध-करना द्वैधीभाव है) . __ प्रथमपक्षे सन्धीयमानो विगृह्यमाणो विजिगीषुरिति द्वैधीभावो बुद्ध्याश्रयः // 46 // प्रथम पक्ष में सन्धि करते हुए, वैर करते हुए विजय की इच्छा करना बुद्धि के आश्रित रहता है अर्थात् मन में सन्धि और विग्रह तथा विजय का विकल्प द्वधीभाव है। (हीयमानः पणबन्धेन सन्धिमुपेयात् यदि नास्ति परेषां विपणितेऽर्थे मयोदोलवनम् // 50 // शत्रु की अपेक्षा यदि स्वयं क्षीण शक्ति हो रहा हो तो किसी शर्त के साथ उससे सन्धि कर लेनी चाहिए किन्तु यह ध्यान रखना चाहिए कि 'शत्तं' के विषय में आगे चलकर शत्रुपक्ष द्वारा मर्यादा का उल्लङ्घन न हो।) (अम्युच्चीयमानः परं विगृह्णीयाद् यदि नास्त्यात्मबलेषु क्षोभः / / 51 // .. यदि शत्रु की अपेक्षा शक्तिशाली होने की प्रतीति हो रही हो और अपनी सेना में किसी प्रकार का क्षोभ न हो तो शत्रु से लड़ते ही रहना चाहिए। न मां परो हन्तुं नाहं परं हन्तुं शक्त इत्यासीत यथायत्यामस्ति कुशलम् // 52 // ) __शत्रु न मुझे मार सकने में समर्थ होगा न मैं शत्रु को भार सकने में समर्थ हं ऐसा समझ में आने पर तटस्थ होकर बैठ जाय, किन्तु भविष्य की कुशल का ध्यान रखे। (गुणातिशययुक्तो यायाद् यदि न सन्ति राष्ट्रकण्टका मध्ये, न भवति (च)पश्चात् क्रोधः // 53 ' यदि सैन्य एवं कोश बल के कारण शत्रु की अपेक्षा स्वयं अधिक शक्ति शाली हो तो यह निश्चय करके कि उसके आक्रमण के निमित्त प्रस्थान कर देने के अनन्तर कुछ राष्ट्र द्वेषी कोई हानि तो न करेंगे अथवा बाद में कोई उपद्रव तो न होगा तो आक्रमण करने के निमित्त प्रस्थान कर दे। (स्वमण्डलम् अपरिपालयतः परदेशाभियोगो विवसनस्य शिरोवेष्टनमिव // 54 // अपने मण्डल की रक्षा न करके शत्रु के देश पर आक्रमण कर बैठना नंगे का साफा बांधने के समान है। अर्थात् शिर पर तो पगड़ी बांध ले और सारा शरीर नंगा हो तो वह जैसे उपहास पात्र होता है वैसे ही स्वदेश को अरक्षित छोड परदेश में जाना हास्यास्पद है।
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy