________________ नीविषाक्यामृतम् अपात्र में दान की निन्दाभस्मनि हुतमिवापात्रेष्वर्थव्ययः // 12 // अपात्र अथवा कुपात्र के निमित्त अर्थ का व्यय करना राख के ढेर में आहुति देने के समान है। पात्रभेद(पात्रश्च त्रिविधं धर्मपात्रं कार्यपात्रं कामपात्रश्चेति // 13 // ) पात्र तीन प्रकार के हैं धर्म पात्र कार्य पात्र और कामपात्र / विशेषार्थ--जिनकी शिक्षा दीक्षा और सदाचार से हम सत्पथ पर आरूढ हों बह धर्मपात्र हैं / जिनसे सांसारिक कार्य सिद्ध हो वह कार्यपात्र हैं और अपनी गृहिणी काम पात्र है क्योंकि उसके द्वारा इहलोक-परलोक दोनों बनता है। ___ कीत्ति कैसी हो?किं तया कीर्त्या या आश्रितान्न बिभर्ति प्रतिरुणद्धि का धर्मम् / भागीरथी-श्री पर्वतवद् भावानामन्यदेव प्रसिद्धः कारणं न पुनस्त्यागः / यतो न खलु गृहीतारो व्यापिनः सनातनाश्च / / 14 // जिससे आश्रितों का भरण-पोषण न हो सके और जो धर्म के प्रतिकूल हो उस कीत्ति से क्या लाभ है। . ___ गंगा, लक्ष्मी और विन्ध्य हिमालय आदि पर्वत विशेष के समान प्रसिद्धि का कारण कुछ दूसरा ही होता है, त्याग नहीं / क्योंकि लाभान्वित होनेवाले व्यक्ति व्यापक और सनातन नहीं होते। विशेषार्थ-अर्थात् धूर्त खुशामदी शराबी और दुराचारिणी स्त्रियां आदि यदि हम से द्रव्य पाकर हमारी प्रशंसा करते फिरें और हमारे कुटुम्बी भूखों मरें तो हमारी वह कोति व्यर्थ है / दुष्टों का उत्कर्ष करने वाली यह कीत्ति धर्म विरोधिनी भी स्पष्ट है। धन की सार्थकता के विषय मेंस खलु कस्यापि माभूदर्थो यत्रासंविभागः शरणागतानाम् // 15 // जिप धनमें से शरणागतों को विभाग न किया जाय ऐसा धन किसी को न हो। एकान्त लोभी की निन्दा(अर्थिषु संविभागः स्वयमुपभोगश्चार्थस्य हि द्वे फले, नास्त्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य // 16 // याचकों को दान देना और स्वयम् उपभोग करना, अर्थ के ये ही दो प्रयोजन हैं / एकान्त लोभी व्यक्ति के धन का कोई "ओचित्य" नहीं है।