________________ 150 नीतिवाक्यामृतम अपने द्वारा किये गये वमन के समान अपने द्वारा दी गई वस्तु का पुनः अभिलाष नहीं करना चाहिए / (उपकृत्य मूकभावोऽभिजातानाम् // 24 // ) कुलीन व्यक्ति उपकार करने के अनन्तर मौन रहते हैं। (परदोषश्रवणे बधिरभावः सत्पुरुषाणाम् // 25 // ) सज्जन पुरुष दूसरे का दोष सुनने के समय बहरे बन जाते हैं / . परकलत्रदर्शनेऽन्धभावो महाभाग्यानाम् / / 26 / / अतीव पुण्यशाली व्यक्ति दूसरे की स्त्री को देखने के अवसर पर अन्धे बन जाते हैं। शत्रावपि गृहायाते संभ्रमः कर्तव्यः कि पुनर्न महति // 27 // जबकि अपने घर में शत्रु के भी आने पर उसका समादर करना उचित है तो महान् व्यक्ति के आगमन पर उसका ममादर क्यों न किया जायगा। (अन्तः सारधनमिव स्वधर्मो न प्रकाशनीयः // 28 // गुप्त धन को जिस प्रकार दूसरे को नहीं बताया जाता उसी प्रकार अपना धर्माचरण भी किसी के समक्ष नहीं व्यक्त करना चाहिए।) (मदप्रमादजे दोषे गुरुषु निवेदनम् अनु प्रायश्चित्तं च प्रतीकारः // 26 // काम क्रोध आदि के मद-वश अथवा असावधानी से किये गये दुष्कृत्य को गुरुजनों से निवेदन करने के अनन्तर उसका प्रायश्चित्त कर लेना ही उसका प्रतीकार है। (श्रीमतोऽर्थार्जने कायक्लेशो धन्यो, यो देव-द्विजान प्रीणाति // 10 // जिस धन से देवता और ब्राह्मणों को प्रसन्न किया जाता हो उस धन के अर्जन में श्रीमानों का कष्ट धन्यवाद के योग्य है। (चणका इव नीचा उदरस्थापिता अपि नाविकुर्वाणास्तिष्ठन्ति ॥३शा) नीचों के साथ कितना भी आत्मीय भाव क्यों न कर लिया जाय वे पेट में ले गये अर्थात् खाये हुये चनों की भांति कुछ न कुछ विकार करते ही हैं। (स पुमान् वन्द्यचरितो यः प्रत्युपकारमनवेक्ष्य परोपकारं करोति // 32 // उस पुरुष का आचरण वन्दनीय है जो प्रत्युपकार की आशा न रखकर दूसरे का उपकार करता है। अज्ञानस्य वैराग्य, भिक्षोविटत्वम् , अधनस्य विलासो, वेश्यारतस्य शौचम् , अविदितवेदितव्यस्य तत्त्वग्रह इति पञ्च न कस्य मस्तक. शूलानि // 33 // . अज्ञानी का वैराग्य प्रहण करना, भिक्षु का कामुक होना, निर्धन का