________________ व्ययहारसमुद्देशः 144 (स किं बन्धुर्यो व्यसनेषु नोपतिष्ठते // 10 // दुःख के अवसर पर काम न आने वाला क्या बन्धु है ? अर्थात वह कुरिसत बन्ध है। (तत्किं मित्रं यत्र नास्ति विश्वासः // 11 // ) जिस पर विश्वास न किया जा सके वह कुत्सित मित्र है। (स किं गृहस्थो यस्य नास्ति सत्कलत्रसम्पत्तिः // 12 // जिसके पास सती भार्या रूप सम्पत्ति नहीं हैं वह ग्रहस्थ निन्दनीय है। (तत्किं दानं यत्र नास्ति सत्कारः // 12 // विना सम्मान का दान निन्दनीय है / (तत्कि भुक्तं यत्र नास्त्यतिथिसंविभागः // 14 // ) जिस भोजन में अतिथि का भाग न हो वह निन्दनीय भोजन है। (तत्कि प्रेम यत्र कार्यवशात् प्रवृत्तिः // 15 // ) जहाँ प्रयोजन वश प्रवृत्ति हो वह प्रेम निन्दनीय है। (तत् किमाचरणं यत्र वाच्यता मायाव्यवहारो वा // 16 // ) वह बाचार निन्दनीय है जिसमें अपयश और छल-कपट पूर्ण व्यवहार हो। (तत् किमपत्यं यत्र नाध्ययनं विनयो वा // 17 // वह कुत्सित पुत्र है जिसमें न अध्ययन हो न विनय हो / तित्किं ज्ञानं यत्र मदेनान्धता चित्तस्य / / 18 // ) मदान्ध चित्त वाले का ज्ञान निन्दनीय है। - तित्कि सौजन्यं यत्र परोक्षे पिशुनभावः // 16 // जहां पीठ पीछे निन्दा की जाती हो वह सजनता केसी सा कि श्रीर्यया न सन्तोषः सत्पुरुषाणाम् // 20 // उस लक्ष्मी से भी क्या जिससे सस्पुरुषों की सन्तोष न हो। - (तरिक कृत्यं यत्रोक्तिरुपकृतस्य // 21 // किये हुए उपकार को जहां कह-कहकर प्रकट किया जाय वह उपकार प्रशंसनीय नहीं है। (तयोः को नाम निर्वाहो यो द्वावपि प्रभूतमानिनौ पण्डितौ लुब्धौ साहकारौ // 22 // ऐसे उन दो आदमियों का परस्पर निर्वाह कैसे हो सकता है जो दोनों ही बड़े अभिमानी, पण्डित, लोभी घोर अहङ्कारी हों। (स्ववान्त इव स्व-दत्ते नाभिलाषं कुर्यात् / / 23 / )