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________________ 148 नीतिवाक्यामृतम् / 27. व्यवहारसमुद्देशा कलत्रं नाम नराणामनिगडमपि बन्धनं दृढ़माहुः // 1 // मनुष्यों के लिये भार्या बन्धन की लौह-शृङ्खला न होने पर भी दृढ़ बन्धन है। (त्रीण्यवश्यं भर्त्तव्यानि माता, कलत्रम् , अप्राप्तव्यवहाराणि चाप.. त्यानि / / 2 / / माता, स्त्री, और व्यवहार में अबोध सन्तति इन तीनों का भरण-पोषण अवश्य करना चाहिए। (दानं तपः प्रायोपवेशनं तीर्थोपासनफलम् // 3 // ) दान, तप और उपवास ये तीर्थ सेवा के फल हैं। (तीर्थोपवासिषु देवस्वापरिहरणं क्रव्यादेषु कारुण्यमिव, स्वाचारच्युतेषु पापभीरुत्वमिव प्राहुः॥४॥ तीर्थ स्नान में वास करनेवाले देवता का द्रव्य नहीं ग्रहण करते यह कहना वैसा ही है जैसे मांस भक्षक में करुणा का होना और अपने आचार-विचार से भ्रष्ट पुरुष में पाप भीरता का होना / ऐसा लोग कहते हैं / (अधार्मिकत्वम् अतिनिष्ठुरत्वं वञ्चकत्वं प्रायेण तीर्थवासिनां प्रकृतिः // 5 // ____ अधार्मिक होना, अतिक्रूर होना, वञ्चना करना. यह प्रायः तीर्थ वासियों का स्वभाव होता है।) (स किं प्रभुर्यः कार्यकाल एव न संभावयति भृत्यान / / 6 // वह स्वामी निन्दनीय है जो कार्य के अवसर पर ही सेवकों का पुरस्कार आदि से सम्मान नहीं करता।) (स किं भृत्यः सखा वा यः कार्यमुद्दिश्यार्थ याचते / / 7 / / ) वह सेवक और सखा भी निन्दनीय है जो कार्य के समय अर्थ की यात्रा करता है। याऽर्थेन प्रणयिनी करोति चाङ्गाकृष्टि सा किंभार्या / / 8 / ) जो द्रव्य के कारण अनुराग और शालिङ्गन करती है वह भार्या निन्दनीय है। (स किं देशो यत्र नास्त्यात्मनो वृत्तिः // 6 // 'वह देश कुत्सित है जहां अपना जीवन निर्वाह नहीं /
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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