________________ 146 नीतिवाक्यामृतम् . . (आयानुरूपो व्ययः कार्यः // 44 // आय के अनुसार ही व्यय करना चाहिये। (ऐश्वर्यानुरूपः प्रसादो विधेयः // 45 // अपनी सम्पत्ति के अनुरूप ही दूसरों को भेंट और पुरस्कार आदि देना चाहिए। (स पुमान सुखी यस्यास्ति सन्तोषः // 46 // वही पुरुष वास्तविक सुखी है जिसको सन्तोष है / (रजस्वलाभिगामी चाण्डालादप्यधमः // 4 // रजस्वला स्त्री के साथ सम्भोग करने वाला व्यक्ति चांडाल से भी अधिक नीच है। (सलज्जं निर्लज्जं न कुर्यात् // 48) सलज्ज व्यक्ति को निर्लज्ज न बना दें अर्थात् विनम्र भाव से रहने वाले व्यक्ति को मुंहलगा बना कर ढीठ कर देना उचित नहीं होता। (स पुमान् सवस्त्रोऽपि नग्न एवं यस्य नास्ति सच्चरित्रम् आवर• णम् // 46 // जिस पुरुष के पास सच्चरित्र रूपी आवरण नहीं है वह वन्त्र पहने हुए भी नंगा ही है। (स नग्नोऽप्यनग्न एव यो भूषितः सच्चरित्रेण // 50 // ) जो सच्चरित्र से विभूषित है वह नंगा होने पर भी वस्त्रयुक्त है। (सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धिः // 51 / / ) सर्वत्र संशयभरी दृष्टि रखने वाले को कार्यों में सिद्धि नहीं प्राप्त होती / (न क्षीरघृताभ्यां परं भोजनमस्ति / / 52 // ) दूध और घी से बढ़कर दूसरा भोजन नहीं है। (परोपधातेन वृत्तिरभव्यानाम् / / 53 / / ) दूसरों को पीड़ित कर अपना जीवन निर्वाह करना दुष्टों का काम है / वरमुपवासो न पराधीनं भोजनम् // 51) उपवास कर लेना अच्छा है किन्तु दूसरों के अधीन रहकर भोजन करना श्रेष्ठ नहीं है। (स देशोऽनुसतव्यो यत्र नास्ति वर्णसङ्करः / / 55 // ) उस देश में निवास करना चाहिए जहां वर्णसंकर अर्थात् क्षुद्र प्रकृति के मनुष्य न हों। . स जात्यन्धो यः परलोकं न पश्यति // 56 // ) जो अपना परलोक का हित न देखे वह स्वभावतः अन्धा है।