________________ 138 नीतिवाक्यामृतम् (नाप्ताशोधितं परस्थानमुपेयात् // 810 ____ अपने प्रामाणिक व्यक्तियों के द्वारा परीक्षण कराये बिना शत्रु के स्थान पर न जाय। (नाप्तजनैरनारूढं वाहनमध्यासीत / / 82 |) प्रामाणिक व्यक्ति जिन पर न बैठ चुके हों ऐसी सवारी पर भी न बैठे। (न स्वैरपरीक्षितं तीर्थ सार्थ तपस्विनं वाभिगच्छेत् || 83 अपने आदमियों से परीक्षण कराये बिना देवस्थान आदि तीर्थ अथवा यात्री-दल और तपस्वी के पास न जाय / (न याष्टिकरविविक्तं मार्ग भजेत् / / 84 || दण्डधारियों से अपरीक्षित मार्ग पर न जाय / (न विषापहारौषधिमणीन् क्षणमप्युपासीत् / / 85 // )) विष दूर करनेवाली औषधि और मणि का सेवन क्षणभर के लिये भी न करे। (मन्त्रिभिषड्नैमित्तिकरहितः कदाचिदपि न प्रतिष्ठेत् / / 86 // मन्त्री, ज्योतिषी ओर वैद्य के बिना कभी भी न रहे। (वह्नावन्यचक्षुषि च भोग्यमुपभोग्यं च परीक्षेत / / 87 // ) अपने भोग और उपभोग को वस्तुओं का परीक्षण अग्नि के द्वारा अथवा | अन्य व्यक्ति की दृष्टि से कराले / अमृते मरुति.प्रविशति सर्वदा चेष्टेत / / 88 // अपने सब काम सदा 'अमृतसिद्धि योग में करे / ) (भक्ति-सुरत-समरार्थी दक्षिणे मरुति स्यात् / / 86 / / भक्ति कार्य, कामभोग और संग्राम दक्षिण पवन के बहने पर अर्थात् वसन्तऋतु में करे।) (परमात्मना समीकुर्वन न कस्यापि भवति द्वेष्यः / / 10 / / परमात्मा के साथ तादात्म्य स्थापित कर लेनेवाले से कोई भी द्वेष नहीं करता।। / मनः-परिजन शकुन-पवनानुलोम्यं भविष्यतः कार्यस्य सिद्धे लिङ्गम् / / 11) मन और नौकर-चाकरों का प्रसन्न होना, अच्छे शकुनों का होना तथा अनुकूल वायु का चलना भावी कार्यसिद्धि के लक्षण हैं। नैको नक्तं दिवं हिण्डेत // 12 // रात-दिन अकेला ही न भ्रमण करे।