________________ 116 नीतिवाक्यामृतम् मैत्री के लिये आदर्शन हि क्षीरात्परं महदस्ति, यत्संगतिमात्रेण करोति नीरम् आत्मसमम् // 8 // मैत्री के आदर्शों में दूध से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है जो मिलते ही पानी को अपने तुल्य बना लेता है। (न नीरात्परं महदस्ति यन्मिलितमेव संवर्धयति रक्षति च स्वक्षयेण क्षीरम् // 6 // पानी से भी बढ़ कर दूसरी वस्तु नहीं है जो दूध से मिलते ही उसकी वृद्धि करता है और अपने को मिटा कर ( जल जाने पर ) भी दूध की रक्षा करता है। (येन केनाप्युपकारेण तिर्यञ्चोऽपि प्रत्युपकारिणोऽव्यभिचारिणश्च न पुनः प्रायेण मनुष्याः // 10 // .. पशु आदि तिर्यग्योनि के भी प्राणी कुछ न कुछ उपकार करके प्रत्युपकार करते हैं और उपकारी के प्रतिकूल नहीं होते किन्तु मनुष्यों में प्रायः ऐसा नहीं देखा जाता। यहां आचार्य प्रवर का आशय यह है कि विचार करने पर यह ज्ञात होता है कि पशु-पक्षी तो उपकृत होने पर उपकार करने वाले की कुछ न कुछ भलाई प्रत्युपकार के रूप में अवश्य करते हैं और प्रतिकूल तो कभी होते ही नहीं किन्तु मनुष्य ऐसा है कि वह कृतघ्नता भी कर बैठता है अतः मनुष्य को पशु-पक्षियों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए / इसे सम्बन्ध में दो उदाहरण आख्यान के रूप में यों हैं : तथा चोपाख्यानकम्अटव्यां किलान्धकूपे पतितेषु कपिसर्पसिंहाक्षशालिक-सौवणिकेषु कृतोपकारः कङ्कायननामा कश्चित् पान्थो विशालायां पुरि तस्मादाक्षशालिकाद् व्यापादनमवाप नाडीजङ्घश्व गौतमादिति / / 11 // जङ्गल में एक बार घास फूस से ढंके हुए एक अन्धकूप में बन्दर, सर्प, सिंह और आक्षशालिक अर्थात् एक जुआड़ी सुनार अथवा सर्राफ गिर पड़े। उधर से संयोगवश कङ्कायन नाम का एक पथिक आया और उसने क्रमशः सबको कुएं से निकाल कर उनका उपकार किया-जिनमें से बन्दर सपं और * सिंह ने तो उस पथिक के साथ यथाशक्ति उपकार करके अपने अपने घर का रास्ता लिया किन्तु उस जुआड़ी ने उसके संग घूमते रहकर मित्रता की और विश्वास उत्पन्न किया किन्तु अन्त में उस पथिक के पास वर्तमान धन की