SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 106 नीतिवाक्यामृतम् गठुर या बक्स आदि चुनीघरों पर खोलवाकर देखा जाता है इसीलिये उसका नाम पण्य पुटभेदिनी पिण्ठा है / पिण्ठा शब्द साहित्य में नया प्रयोग है। इसका किसी लौकिक अपभ्रंश से सम्बन्ध होगा। इन 'चुङ्गीघरों पर किसी प्रकार की जोर--जबर्दस्ती और अन्याय न हो अर्थात् ज्यादा चुंङ्गी न ले ली जाय, चोरी की चीज समझ में आवे तो पता लगाकर उसके मालिक को दे दी जाय इत्यादि / ऐसा होने से इन शुल्क स्थानों से राजा की आय बहुत अच्छी होती है। (रोज्ञां चतुरङ्गबलाभिवृद्धये भूयांसो नक्तग्रामाः / / 22 // राजाओं की चतुरङ्गिणी सेना की वृद्धि के लिये बहुत से धान्य के खेत वाले गांव सुरक्षित रहने चाहिए / अर्थात् ऐसे गांवों को किसी अन्य को लगान पर नहीं देना चाहिए। उनमें जो कुछ उत्पन्न हो वह सब चतुरंगिणी सेना के भक्ष्य-भोज्य के लिये हो। (सुमहच्च गोमण्डलं हिरण्याय, युक्तं च शुल्क कोशवृद्धिहेतुः / / 23 // विनिमय में सुवर्ण प्राप्ति के लिये राज्य में प्रचुर गायों का होना और युक्त अर्थात् न्याय कर ये दोनों राजा के कोश की वृद्धि के कारण हैं) भूदान विषयक विचार-- देवद्विजप्रदेया गोरुतप्रमाणा भूमिर्दातुरादातुश्च सुखनिर्वाहा // 24 // देवता और ब्राह्मण को दी जाने वाली भूमि जहां तक एक गौ के रंभाने का शब्द सुनाई पड़े उतनी ही अर्थात् स्वल्प हो क्योकि इससे दाता और ग्रहण कर्ता दोनों को सुख होता है थोड़ी जमीन देने में दाता को कष्ट नहीं होता और ग्रहीता को प्रबन्ध में सरलता होती है। क्षेत्र, वप्र, खण्ड, गृह, धर्मायतनानामुत्तरः पूर्व बाधते न पुनरुत्तरं पूर्वः // 25 // क्षेत्र, कोट, खाई आदि, तालाब, गृह और देवमन्दिर इन सब में क्रमशः उत्तरोत्तर का महत्त्व है पूर्व से उत्तर का बाध नहीं है।) (राज्य की किसी परती = खाली जमीन को कोई खेत बनाले दूसरा उस पर कोट बना ले अथवा चहारदिवारी घिरवा दे, तीसरा तालाब बनवाले चौथा आदमी मकान बनवा ले और पांचवां उसे देवमन्दिर का रूप दे दे 'और अन्त में विवाद उठ खड़ा हो कि स्वामित्व किसका तो क्रमशः महत्त्व की दृष्टि से मन्दिर बना देने वाले का अधिकार प्रबल होगा / दान की दृष्टि से भी इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठता है। [इति जनपदसमुद्देशः] .
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy