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________________ दुर्गसमुद्देशः 107 * 20. दुर्गसमुद्देशः दुर्ग शब्द का अर्थयस्याभियोगात् परे दुःखं गच्छन्ति दुर्जनोद्योगविषया वा स्वस्यापदो गमयतीति दुर्गम् // 1 // __जिसके सम्मुख आ जाने पर शत्रुलोग दु:खी हो जाते हैं और दुष्टों के उद्योग से अपने ऊपर आने वाली आपत्तियों को जो दूर कर देता है वह दुर्ग है। दुर्ग के दो भेदतद् द्विविधं स्वाभाविकम् , आहार्यश्च // 2 // यह दो प्रकार का होता है स्वाभाविक और आहार्य-पर्वत अथवा जल आदि से स्वभावतः घिरा हुआ स्थान स्वाभाविक दुर्ग है और खाई आदि से घेर कर पत्थरों आदि से बना हुआ विशाल रक्षा स्थान आहार्य दुर्ग है। दुर्ग का स्वरूपवैषम्य, पर्याप्तावकाशो, यवसेन्धनोदकभूयस्त्वं स्वस्य, परेषामभावो, बहुधान्यरससंग्रहः, प्रबेशापसारौ, वीरपुरुषा इति दुर्गसम्पद्, अन्यद् बन्दिशालावत् / / 3 // भूमि का ऊंचा-नीचा होना, अन्दर बहुत बड़ा स्थान होना, अपने लिये धास लकड़ी आदि का प्रचुर मात्रा में सुलभ होना किन्तु शत्रु के लिये इनका अभाव होना ( किले के भीतर गाय बैल घोड़ों का चारा घास आदि और लकड़ी तथा जल सुलभ हो जो अपने काम आवे और बाहर ये सब कुछ न मिलें जिससे शत्रु के पशु घास पानी बिना मर जाय और ईधन तथा जल के अभाव में शत्रु मर जायं ) प्रचुर अन्न और गोरस धृतादि का संग्रह, प्रवेशद्वार और पीछे से निकल भाग सकने का भो द्वार तथा वीर पुरुषो का समूह इतनी चीजें दुर्ग की महत्ता को बढ़ाने वाली हैं / इनके अभाव में दुर्ग, दुर्ग नहीं कारागार है। दुर्ग का महत्त्वअदुर्गो देशः कस्य नाम न परिभवास्पदम् // 4 // बिना दुर्ग के देश में कौन राजा परास्त नहीं होता ? अदुर्गस्य राज्ञः पयोधिमध्ये पोतच्युतपक्षिवदापदि नास्त्याश्रयः॥शा - बिना दुर्ग वाले राजा को, समुद्र के मध्य में जहाज से भटके हुए पक्षी के समान, आपत्तिकाल में कहीं आश्रय नहीं प्राप्त होता /
SR No.004293
Book TitleNitivakyamrutam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSomdevsuri, Ramchandra Malviya
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1972
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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