________________ 104 नीतिवाक्यामृतम् उत्पन्न होना और वृक्षों के फलों पर जीवन निर्वाह की स्थिति का होना ये सब देश के दोष हैं / ) - सिंचाई के साधनों की आवश्यकता(तत्र सदा दुर्भिक्षमेव यत्र जलदजलेन सस्योत्पत्तिरकृष्टभूमि श्वारम्भः // 10 // वहां सदा दुभिक्ष-अकाल-ही रहता है जहां मेघ के जल पर ही खेती निर्भर हो और भूमि ऐसी हो कि वह जोती न जा सके अतः बिना जोती भूमि में यों ही बीज बिखेर कर अन्नोन्पत्ति हो / ) क्षत्रियों के स्वभाव का वर्णन(क्षत्रियप्राया हि ग्रामाः स्वल्पास्वपि बाधासु प्रतियुध्यन्ते // 11 // जहाँ प्रायः क्षत्रिय ही क्षत्रिय बसे हों ऐसे गांवो में थोड़ी ही थोड़ी बातों में लड़ाइयां ठन जाती हैं। ब्राह्मणों की प्रकृति का वर्णन(म्रियमाणोऽपि द्विजलोको न खलु सान्त्वेन सिद्धमप्यर्थं प्रय. च्छति // 12 // . ब्राह्मण लोग मरण-सङ्कट में भी पड़कर राजा का देय द्रव्य मालगुजारी आदि सिधाई से नहीं देते / इन दोनों सूत्रों से आचार्य का आशय है कि राजा क्षत्रिय-बहुल और ब्राह्मण-बहुल ग्राम न बसावे / ) पुनर्वास-व्यवस्था(स्वभूमिकं भुक्तपूर्वमभुक्तं वा जनपदं स्वदेशाभिमुखं दानमानाभ्यां परदेशादावहेत् वासयेच्च // 13 // जो अपने राज्य का आदमी चाहे वह करदाता रहा हो या न भी रहा हो, यदि परदेश में चला गया हो या बस चुका हो वह यदि पुनः स्वदेश में आने को उन्मुख हो तो उसे दान-मान से सन्तुष्ट कर ले आवे और अपने राज्य में बसावे / राज्य कर के विषय में सावधानी की आवश्यकता(स्वल्पोऽप्यादायेषु प्रजोपद्रवो महान्तमर्थ नाशयति / / 14 // आदाय अर्थात् राज्य कर के सम्बन्ध में प्रजा का थोड़ा सा भी उपद्रव राजा की महती अर्थ हानि करता है ) राज्यकर ग्रहण में विचार की आवश्यकता(क्षीरिषु कणिशेषु सिद्धादायो जनपदमुद्वासयति // 15 // जब गेहूं जौ आदि के पौधों में दूध पड़ रहा हो अर्थात् इनकी मजरिये में दाना लग रहा हो तब जो राजा अपना बकाया लगान आदि वसूल करने