________________ "येषां बाहुबलं नास्ति येषां नास्ति मनोबलम् / तेषां चन्द्रबलं देव किं कुर्यादम्बरे स्थितम् // " इनके वर्णन अपनी स्वाभाविकता के कारण भी मनोरम हैं। द्वितीय आश्वास में इन्होंने शिशु-क्रीड़ा के प्रसङ्ग में पांच पद्य लिखे हैं जो किसी भी सहृदय के हृदय को आवजित किये बिना नहीं रह सकते। यहां एक श्लोक उद्धृत है "स्वल्पं रिङ्गति जानुहस्तचरणः किञ्चित्कृतालम्बनः स्तोकं मुक्तकराङ्गुलिः परिपतन् धाग्या नितम्बे धृतः / स्कन्धारोहणजातधीः पुनरयं तस्याः कचाकर्षणे क्रूरालोकनकोपकल्मषमनास्तद्वक्त्रमाहन्ति च // " यशस्तिलक का तृतीय आश्वास अधिकांश राजनीति के उपदेशों से पूर्ण है और किन्हीं स्थलों पर तो 'नीतिवाक्यामृतम्' से उसके वर्णन एकरस और समरस हैं। इस प्रकार अब तक इनकी जो रचनाएं सर्वसाधारण को सुलभ हो सकी हैं उनसे इनके व्यापक और प्रौढ पाण्डित्य की पुष्टि होती है / नीतिवाक्यामृतम् अपनी विशिष्ट सूत्रशैली, अर्थगाम्भीयं और अनुभवपूर्ण उक्तियों के कारण बहुत ही उपादेय ग्रन्थ है। अनेक स्थलों पर इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ में पाठ भेद पाये जाते हैं, जिनका निर्णय करने के लिये अनुसन्धान आवश्यक है। इस ग्रन्थ का अध्ययन कर मनुष्य सहज ही सांसारिक व्यवहार में कुशलता प्राप्त कर सुख पूर्वक अपनी संसार-यात्रा का निर्वाह कर सकता है। वह सहसा भ्रम और वन्चना का लक्ष्य नहीं बनाया जा सकता। शास्ता और शासित विनेता और विनयी, अर्थ, धर्म और काम तथा ब्रह्मचारी, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ सबके लिये यह सुन्दर और सारवान् चिन्तन सामग्री प्रस्तुत करता है। अतः इस ग्रन्थ का सर्वसाधारण में प्रचार आवश्यक है। नीतिवाक्यामृत की एक हिन्दी टीका हो चुकी है जो बहुत विस्तृत और बहुमूल्य है। वह इस समय प्राप्य नहीं है। मैंने आज से 3-4 वर्ष पूर्व इस ग्रन्थ को देखा था और तभी से मेरे मन में यह उत्कण्ठा थी कि इसे सर्व साधारण के लिये सुलभ किया जाना राष्ट्र के अभ्युत्थान की दृष्टि से श्रेयस्कर होगा। किन्तु मैं अपने अलस स्वभाव के कारण व्यावहारिक रूप से कुछ कर सकने में असमर्थ रहा। एक दिन जब मैं अपने मित्र श्रीअमृतलालजी जैन, जैनदर्शनाध्यापक, वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से सोमदेव की प्रशंसा करते हुए इस ग्रन्थ की चर्चा कर रहा था तब उन्होंने मुझे इसका हिन्दी अनुवाद करने के लिये प्रोत्साहित ही नहीं किया प्रत्युत इस