SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रेत में गाड़कर वे अपने बिलों में भाग जाएँगे। रात्रि के शीत से पके जलचर जीवों को प्रातः और दिन में सूर्य की गर्मी से पके जीवों को सन्ध्या में निकालेंगे। उस पर सब मनुष्य एक साथ टूट पड़ेंगे और लूटकर खाएँगे। मरे हुए मनुष्यों की खोपड़ी में पानी भरकर पीयेंगे। जानवर मच्छ-कच्छ की बची हुई हड्डियों को खाकर गुजर करेंगे। इस आरे के मनुष्य दीन-हीन, क्रूर, अंधे-काने, गूंगे, दरिद्र, क्रोधी, कूबड़े, कुरूप धूम्रवर्ण वाले व महामूर्ख होते हैं। ये नग्न, आचारहीन, दुर्बल, दुर्गन्धित देह वाले, मर्यादा रहित, क्षुद्र और तुच्छ स्वभाव वाले होते हैं। माता-भगिनी-पुत्री आदि किसी के भी साथ मैथुन सेवन करते हैं। छह वर्ष की नारी कुतिया और सुअरनी के समान बहुत संतान पैदा करती है। नाना प्रकार की व्याधियों से शरीर ग्रस्त रहेगा। हृदय में सतत राग-द्वेष की भट्टी जलती रहेगी। सेवार्तक संघयन और हुंडक संस्थान होगा। धर्म-कर्म का कोई भान नहीं होगा। दुःख ही दुःख में अपनी संपूर्ण आयु व्यतीत करके ये नरक अथवा तिर्यंच गति में जाएँगे। उस समय जो सिंह, बाघ, भेड़िए, रीछ तथा सियार बिलाव, कुत्ते, सुअर, खरगोश आदि जीव होंगे, वे भी मांसाहारी, क्षुद्राहारी होंगे तथा वे भी नरक, तिर्यंच गति में ही उत्पन्न होंगे। ___छठे आरे के अंत तक यह स्थिति अधिकाधिक विषम होती चली जाएगी। शरीर की ऊँचाई एक हाथ से भी कम और आयुष्य 16 वर्ष का रह जाएगा। अंतिम समय में क्षार, विष, अग्नि, धूल और धुएँ की वर्षा से भयानकता बढ़ जाएगी। धरती पर जीवन समाप्तप्रायः हो जाएगा। पृथ्वी एक योजन नीचे तक जलकर राख हो जाएगी। तब अवसर्पिणी काल का अंत और उत्सर्पिणी काल का प्रारम्भ होगा। उत्सर्पिणी (उत्कर्ष काल) अवसर्पिणी काल के दस कोटाकोटि सागरोपम व्यतीत होने के बाद दस कोटाकोटि सागरोपम का ही उत्सर्पिणी काल प्रारम्भ होता है। अवसर्पिणी के जिन छह आरों का वर्णन ऊपर दिया गया है, वही छह आरे 'उत्सर्पिणी काल' में होते है। अन्तर केवल इतना ही है कि उत्सर्पिणी काल में इन छह आरों का क्रम उलटा हो जाता है। उत्सर्पिणी काल दुषम-दुषमा से प्रारम्भ होता है और सुषम-सुषमा पर समाप्त होता है। इस काल को 'उत्कर्ष काल' भी कह सकते हैं। इसके छह आरों का संक्षिप्त विवरण निम्नोक्त है। (1) दुषम-दुषमा-अवसर्पिणी के छठे आरे जैसा ही उत्सर्पिणी का यह प्रथम आरा 21,000 वर्ष का होता है। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का दिन इसका प्रारंभिक दिन है। तब से लेकर वर्ण, रस, गंध स्पर्श संहनन, प्रकृति आदि सब कुछ प्रशस्त शुभ-शुभतर होने लगते हैं। (2) दुषमकाल-इसके अनन्तर दूसरा दुषमा आरा भी 21,000 वर्ष का होता है और वह भी श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन आरम्भ होता है। इस आरे के आरम्भ होते ही पाँच प्रकार की वृष्टि सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में होती है। यथा-सर्वप्रथम आकाश, घन-घटाओं से आच्छादित हो जाता है और विद्युत के साथ सात दिन-रात तक निरन्तर 'पुष्कर' नामक मेघ वृष्टि करते हैं। इससे धरती की उष्णता दूर हो जाती है। इसके पश्चात् सात दिन वर्षा बन्द रहती है। फिर सात दिन पर्यन्त निरंतर दूसरे दुग्ध के समान क्षीर' नामक मेघ बरसते है, जिससे सारी दुर्गंध दूर हो जाती है। फिर सात दिन तक वर्षा बन्द रहती है। तत्पश्चात् तीसरे 'घृत' नामक मेघ सात सचित्र जैन गणितानुयोग -57
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy