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________________ दिन-रात तक निरन्तर बरसते रहते हैं। इससे पृथ्वी में स्निग्धता आ जाती है। इसके बाद लगातार सात दिन-रात तक चतुर्थ अमृत के समान 'अमृत' नामक मेघ बरसते हैं। इस वर्षा से 24 प्रकार के धान्यों के तथा अन्यान्य सब वनस्पतियों के अंकुर जमीन में से फूट निकलते हैं। फिर सात दिन खुला रहने के बाद पाँचवें ईख के रस के समान 'रस' नामक मेघ सात दिन-रात तक निरंतर बरसते हैं, जिससे वनस्पति में मधुर, कटुक, तीक्ष्ण, कषैले और अम्लरस की उत्पत्ति होती है। वनस्पतियाँ औषधियों से युक्त सुस्वाद हो जाती हैं।' प्रकृति की यह निराली लीला देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते हैं। वृक्षों को राक्षस समझकर उनसे भयभीत हुए अपने बिलों में भाग जाते हैं। लताओं और पत्तों को हिलते हुए देखकर अनिष्ट की आशंका से वे काँप उठते हैं। किन्तु बिलों की दुर्गंध से घबराकर वे पुन: बाहर निकलते हैं। वनस्पतियों के वर्ण और सुगंध से आकृष्ट होकर वे उनके पास पहुँचते हैं। धीरे-धीरे उनका भय दूर होने लगता है। फिर वे फलों को तोड़कर खाने लगते है, फल उन्हें मधुर लगते हैं, तब वे माँस-मछली से घृणा करने लगते है, उन्हें अपवित्र समझकर उसका बहिष्कार करते हैं, नहीं खाने वालों को श्रेष्ठ समझते हैं। फिर वे जातीय नियम बना लेते हैं कि 'अब जो माँस का आहार करेगा उसके साथ हम कोई व्यवहार नहीं रखेंगे।' इस प्रकार धीरे-धीरे जाति विभाग भी हो जाते हैं और पाँचवे आरे जैसी सारी व्यवस्थाएँ स्थापित हो जाती है। इस काल के एक हजार वर्ष शेष रहने पर 14 कुलकर उत्पन्न होते हैं। इसमें प्रथम कुलकर की ऊँचाई 4 हाथ की और अंतिम कुलकर की 7 हाथ की होती है। अंतिम कुलकर के समय विवाह-विधियाँ शुरू होती है। इस आरे के जीव मरकर अपने-अपने कर्मानुसार चारों गतियों में उत्पन्न होंगे। किंतु सिद्ध पद कोई प्राप्त नहीं करेगा। (3) दुषमकाल-सुषमकाल-दुषमकाल के 21 हजार वर्ष व्यतीत होने के बाद उत्सर्पिणी का -सषम नाम का ततीय आरक प्रारम्भ होगा। यह आरा 42 हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का होता है। इस आरे में छह संहनन तथा छह संस्थान होंगे। शरीर की ऊँचाई 7 हाथ से बढ़ती-बढ़ती 500 धनुष प्रमाण तक होगी। आयुष्य अन्तर्मुहूर्त से लेकर एक पूर्व कोटि तक का होगा। इस आरे में चारों गति तथा मोक्ष में जाने वाले मनुष्य होंगे। 23 तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव आदि अवसर्पिणी के चतुर्थ आरे के समान उल्टे क्रम में होंगे। पुदगलों के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श में अनन्तगुणा परिवृद्धि होगी। (4) सुषमकाल-दुषमकाल-तीसरा आरा समाप्त होने पर चौथा सुषम-दुषम काल दो कोटा कोटि सागर का प्रारम्भ होता है। इसके 84 लाख पूर्व, 3 वर्ष और साढे आठ महीने के बाद चौबीसवें तीर्थंकर, जिनका सम्पूर्ण वक्तव्य भगवान ऋषभदेव के समान है, वे मोक्ष चले जाते हैं और उसके पश्चात् कुछ कम 18 करोड़ सागरोपम, तक भरत-ऐरावत क्षेत्र से धर्म का विच्छेद हो जाता है। कोई भी तीर्थंकर जन्म नहीं लेता। इस काल में एक चक्रवर्ती होता है। करोड़ पूर्व का समय व्यतीत होने के बाद कल्पवृक्षों की उत्पत्ति होने लगती है। उन्हीं से मनुष्य और पशुओं की इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्पकर्म एवं पुरूष व स्त्रियों 1. इस प्रकार पाँच सप्ताह वर्षा के और दो सप्ताह बिना वर्षा के इन समस्त दिनों को मिलाकर 7x5=35+14 = 49 दिन होते हैं। 50वें दिन सभी बिल निवासियों ने प्रतिज्ञा की थी कि हम आज से माँसाहार नहीं करेंगे। अत: इसी दिन संवत्सरी महापर्व मनाया जाता है। यह सम्वत्सरी पर्व अनादि है और अनंतकाल तक रहेगा। 58 सचित्र जैन गणितानुयोग
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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