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________________ पृथ्वी का स्वाद गुड़ जैसा होता है। छह मास पूर्व युगलिनी एक युगल को जन्म देती है और 79 दिन पालन-पोषण करने पर वे स्वावलम्बी बन जाते हैं। उक्त तीनों भोगभूमि को उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि भी कहते हैं। कुलकरों की उत्पत्ति-तीसरे आरे के 66 लाख करोड़, 66 हजार करोड़, 66 करोड़, 66 लाख, 66 हजार, 666 सागरोपम बीत जाने पर अर्थात् तीसरे आरे के तीसरे भाग में ऋद्धि, बल, तेज आदि की क्रमशः हीनता के कारण परस्पर विवाद प्रारम्भ होते हैं। उनका समाधान करने के लिये एक के बाद एक 14 कुलकरों की उत्पत्ति होती है। उनके नाम हैं-1. सुमति, 2. प्रतिश्रुति, 3. सीमकर, 4. सीमंधर, 5. क्षेमंकर, 6. क्षेमंधर, 7. विमलवाहन, 8. चक्षुष्मान, 9. यशस्वान्, 10. अभिचन्द्र, 11. चन्द्राभ, 12. प्रसेनजित, 13. मरूदेव और 14 नाभि। ये वर्तमान अवसर्पिणी के अत्यंत तेजस्वी बुद्धिमान, जन्मान्तर के संस्कारों से युक्त मर्यादा पुरूष थे। प्रारंभ के पाँच कुलकरों के समय 'हकार' दण्डनीति अर्थात् 'हा'! तुमने यह कार्य किया?' इस प्रकार अपराधी को लज्जित किया जाता था। आगे पाँच कुलकरों के समय 'मकार' अर्थात् 'ऐसा मत करो।' तथा उसके बाद कुलकरों के समय धिक्कार' दण्डनीति थी। ऐसा कहने मात्र से लोग अपराध करना छोड़ देते थे। तीर्थंकर जन्म एवं कर्मभूमि का प्रारम्भ जब तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहते हैं, तब अंतिम कुलकर के यहाँ अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। युवावस्था में उनका विवाह सम्पन्न होता है, पश्चात् वे प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षक्रियाओं से आजीविका का उपाय बताते हैं। पुरूषों की 72 एवं स्त्रियों की 64 कलाएँ सिखाते हैं। चार कुल एवं 18 श्रेणियाँ-प्रश्रेणियाँ स्थापित करते हैं। क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, नाम से तीन वर्गों की स्थापना करते हैं। यद्यपि ये सभी कलाएँ, विद्याएँ, लिपियाँ एवं श्रेणी-प्रश्रेणियाँ अनादिकाल से हैं और अनंतकाल तक रहेंगी, तथापि काल के प्रभाव से भरत और ऐरवत क्षेत्र में कभी लुप्त हो जाती हैं। प्रथम तीर्थंकर बनने वाली आत्मा अपने राज्यकाल में इन सभी विद्याओं और कलाओं को पुनः प्रकट करती हैं। ये सभी विद्याएँ महाविदेह क्षेत्र में सदैव बनी रहती हैं। (4) दुषम-सुषमा काल-यह आरा 42 हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम का है। इसमें दुःख ज्यादा और सुख अल्प होता है। पूर्वापेक्षया वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संघयण, संस्थान आदि की उत्तमता में कमी आ जाती है। देहमान क्रमशः घटते-घटते 500 धनुष का और आयुष्य एक करोड़ पूर्व की रह जाता है। पसलियाँ सिर्फ 32 होती हैं। दिन में एक बार भोजन की इच्छा पैदा होती है। इसमें मनुष्य के छहों संहनन' (शरीर her 1. छह संहनन-(1) वज्रऋषभनाराच संहनन-एक हजार मन का भरा हुआ शकट शरीर पर से निकल जाए तो कच्चे सूत के समान मालूम पड़े वह संहनन की रचना-विशेष, (2) ऋषभनाराच संहनन-एक सौ मन का शकट शरीर पर से निकल जावे तो कच्चे धागे की तरह मालूम पड़े,(3) नाराच संहनन-10 मन का शकट जिस शरीर पर से निकल जावे तो भी कच्चे धागे की तरह मालूम पड़े,(4) अर्द्धनाराच संहनन-एक मन का शकट जिस शरीर पर से निकल जावे तो भी कच्चे धागे की तरह मालूम देवे, (5) कीलिका-संहनन-जिसमें नरम झाड़ की तरह आसानी से हड्डियाँ झुक जाती है, जो अधिक वजन सहन नहीं कर सकती, (6) सेवार्तक-संहनन-जिसमें हड्डियाँ अधिक दुर्बल हों, साधारण वजन से टूट जाएँ। 52 AAAAAAAA- सचित्र जैन गणितानुयोग So /
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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