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________________ की मजबूती) और छहों संस्थान (शरीर का आकार विशेष) होते हैं। इस आरे में नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और मोक्ष इन पाँचों गतियों को प्राप्त होने वाले जीव होते हैं। 23 तीर्थंकर, 11 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव और 9 प्रतिवासुदेव भी इसी काल में जन्म लेते हैं। तीर्थंकर-जो भवसागर से स्वयं तिरते हैं और अपने साथ लाखों मुमुक्षु आत्माओं को तिराने का मार्ग प्रदान करते हैं, वे तीर्थंकर' कहलाते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में ऐसी सर्वोत्कृष्ट आत्माएँ 24 ही अवतरित होती है, उनके नाम इस प्रकार है 1. ऋषभदेव, 2. अजितनाथ, 3. संभवनाथ, 4. अभिनंदननाथ, 5. सुमतिनाथ, 6. पद्मप्रभ, 7. सुपार्श्वनाथ, 8. चन्द्रप्रभ, 9. सुविधिनाथ, 10. शीतलनाथ, 11. श्रेयांसनाथ, 12. वासुपूज्य, 13. विमलनाथ, 14. अनंतनाथ, __15. धर्मनाथ, 16. शांतिनाथ, 17. कुंथुनाथ, . 18. अरहनाथ, 19. मल्लिनाथ, 20. मुनिसुव्रतनाथ, 21. नमिनाथ, 22. नेमिनाथ, 23. पार्श्वनाथ, 24. महावीर। तीर्थंकरों का अन्तर काल-प्रथम तीर्थंकर के मोक्ष जाने के पश्चात् 50 लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर दूसरे तीर्थंकर मोक्षपद प्राप्त करते हैं। इनके 30 लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर तीसरे तीर्थंकर सिद्ध होते हैं। इसके बाद क्रमशः 10 लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर चौथे, 9 लाख करोड़ सागर के बाद पाँचवे, 90 हजार करोड़ सागर के बाद छठे, 9 हजार करोड़ सागर के बाद सातवें, 900 करोड़ सागर के बाद आठवें, 90 करोड़ सागर के बाद नौवें, 9 करोड़ सागर के बाद दसवें भगवान सिद्ध हुए। 33 लाख 73 हजार नौ सौ सागर के व्यतीत हो जाने पर ग्यारहवें, 54 सागर के बीत जाने पर बारहवें, 30 सागर व्यतीत हो जाने पर तेरहवें, 9 सागर व्यतीत हो जाने पर चौदहवें, 4 सागर के पश्चात् पन्द्रहवें, पौन पल्य कम 3 सागर के बीत जाने पर सोलहवें, अर्द्धपल्य काल के बीत जाने पर सत्रहवें, एक करोड़ वर्ष कम पाव पल्य के बीत जाने पर अठारहवें, एक हजार करोड वर्ष के बाद उन्नीसवें, 54 लाख वर्षों के बीत जाने पर बीसवें, 6 लाख वर्ष बीत जाने पर इक्कीसवें, 5 लाख वर्ष के बाद बाईसवें, 83,750 वर्ष के बाद तेईसवें, 250 वर्ष पश्चात् चौबीसवें तीर्थंकर सिद्ध गति को प्राप्त होते हैं। उस समय पंचम काल के प्रवेश होने में तीन वर्ष साढ़े आठ मास शेष रहते हैं। चक्रवर्ती-संपूर्ण भरत क्षेत्र के अधिपति एकमात्र चक्रवर्ती होते हैं। वे भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर एकछत्र राज्य करते हैं। ये 14 रत्न नवनिधान के स्वामी एवं सर्वऋद्धि सम्पन्न होते हैं। इनके शरीर में 40 लाख अष्टापदों की शक्ति होती है। अंत में सर्वऋद्धि का त्यागकर जो संयम ग्रहण कर लेते है वे मोक्ष या वैमानिक देवों 2. छह संस्थान-(1) समचतुस्त्रसंस्थान-जिसमें शरीर की रचना, ऊपर नीचे तथा बीच में समभाग रूप से हो, (2) न्यग्रोध परिमण्डल-संस्थान-बड़ के समान जिस शरीर की रचना नीचे से खराब और ऊपर से अच्छी हो अर्थात् नाभि से नीचे के अंग छोटे और ऊपर के बड़े हों, (3) सादि-संस्थान-जिसमें नाभि से नीचे के अंग पूर्ण और ऊपर के अपूर्ण हों, (4) कुब्जकसंस्थान-जिसमें छाती पर या पीठ पर कुबड़ हो, (5) वामनसंस्थान-जिसमें शरीर बौना हो, ठिगना हो, (6) हण्डकसंस्थान-जिसमें शारीरिक अंगोपांग किसी विशेष आकार में न हों,टेढ़ा-मेढ़ा आकार। सचित्र जैन गणितानुयोग 53
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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