________________ एक जोड़ा प्रसव करती है। एक-दूसरे का वियोग नहीं देखना पड़ता, रोग-शोक बीमारी, किसी भी प्रकार का बाह्य या आंतरिक उपद्रव नहीं होता। एक को छींक, दूसरे को जंभाई आते ही आयु पूर्ण कर वे देवगति में वर्तमान आयु से कुछ कम आयु प्राप्त कर उत्पन्न होते हैं। उस क्षेत्र का अधिष्ठाता देव मृतक शरीर को क्षीर-समुद्र में प्रक्षिप्त कर देता है। इस काल में ग्राम, नगर, असि, मसि, कृषि, वणिक, पणित आदि नहीं होते। दस प्रकार के कल्पवृक्षों से वे अपनी मन-कल्पित सभी इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं कल्पवृक्षों के नाम-(1) मत्तांग-मधुर फल प्रदाता, (2) भृतांग-विविध प्रकार के भाजन-पात्र बर्तन के प्रदाता, (3) त्रुटितांग-49 प्रकार के वाद्यंत्र मधुर शब्द-स्वर प्रदाता, (4) दीपशिखाप्रकाशप्रदायक, (5) जोतिषिक-रात्रि में सूर्य के सामन चमकने वाले, (6) चित्रांग-सुगंधित माला पुष्प प्रदाता, (7) चित्ररस-18 प्रकार का स्वादिष्ट भोजन देने वाले, (8) मण्यंग-मणिमय आभूषणों के प्रदाता, (9) गेहाकार-विविध प्रकार के गृह-निवासस्थान प्रदाता, (10) अनग्न-वस्त्रों की आवश्यकता पूर्ण करने वाले। ये सभी कल्पवृक्ष न कोई व्यन्तर देव हैं न अन्य कोई चमत्कार, वरन् सभी उत्कृष्ट जाति के पृथ्वीकाय या वनस्पतिकाय का रूप हैं, जो जीवों को उनके पुण्य कर्मो का फल देते हैं। भोगभूमि में उत्पत्ति के कारण-भोगभूमि में मनुष्य या तिर्यंच जीव उत्पन्न होते हैं। मिथ्यात्व भाव से युक्त होने पर भी जो मंदकषायी, मधु-माँसादि के त्यागी, गुणियों के गुणों में अनुरक्त, बाल तपस्वी, निर्ग्रन्थ साधुओं को आहारादि दान देने वाले जीव या अनुमोदनादि करने वाले पशु भी यहाँ मनुष्य रूप से उत्पन्न होते हैं। जिसने सम्यग्दर्शन प्राप्त करने से पूर्व मनुष्य आयु का बंध कर लिया है ऐसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं। कोई अज्ञानी व्रत-भंग कर कुदेव-कुगुरू-कुधर्म की उपासना करने लगते हैं, वे भी भोगभूमि में तिर्यंच होते हैं। सम्यक्त्व के कारण वहाँ पर कोई जीव जातिस्मरण से, कोई देवों के सम्बोधन से कोई ऋद्धिधारी मुनि आदि के उपदेश से सम्यक्त्वी तो हो सकते हैं, किंतु श्रावक के व्रत या साधु के महाव्रत धारण नहीं कर सकते। (2) सुषमकाल-सुषम-सुषमा काल में वर्ण, गंध रस स्पर्श, संहनन, संस्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरूषाकार, पराक्रम आदि निरंतर घटते चले जाते है। इस प्रकार प्रथम आरे की समाप्ति के बाद तीन कोटाकोटि सागरोपम का 'सुषम' काल प्रारम्भ होता है। इस काल में शरीर की ऊँचाई दो कोस अर्थात् चार हजार धनुष, आयु दो पल्योपम और शरीर का वर्ण चन्द्रमा सदृश धवल होता है। पृष्ठभाग में 128 पसलियाँ रह जाती हैं। सुंदर समचतुरस्र संस्थान से युक्त ये तीसरे दिन बेर के बराबर आहार कर तृप्त हो जाते हैं। पृथ्वी का स्वाद शक्कर जैसा रह जाता है। मृत्यु से छह मास पूर्व युगल पुत्र-पुत्री जन्म लेते हैं, 64 दिन उनका पालन-पोषण होता है। आरे के अंतिम समय तक वर्ण, रस, गंध और स्पर्श की उत्तमता में अनन्तगुणी हीनता आ जाती है। (3) सुषम-दुषमा काल-दूसरा आरा समाप्त होने पर दो कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण तीसरे आरे में दुःख की स्वल्प संवेदनाएँ होने लगती हैं। मनुष्यों की ऊँचाई एक कोस (दो हजार धनुष) आयुष्य एक पल्योपम और पृष्ठभाग में 64 पसलियाँ रह जाती हैं। प्रति दूसरे दिन आँवले के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग 51