________________ है। ये प्रकाश मण्डल पूर्व की दीवार से प्रारम्भ करते हैं। गुफा का विस्तार 50 योजन होने के कारण 49 मण्डल बनते हैं। प्रकाश मण्डल की लम्बाई गुफा प्रमाण 12 योजन की (पूर्व-पश्चिम) चौड़ाई उत्तर-दक्षिण में एक योजन और ऊँचाई आठ योजन की होती है। ___ चक्रवर्ती गुफा के ठीक बीच में आने वाली उमग्नजला और निमग्नजला महानदियों पर सैकड़ों खम्भों वाले पुल का निर्माण करवाकर उन्हें पार करते हैं तथा तमिस्रा गुफा के उत्तरी द्वार पर पहुँचते हैं। उनके वहाँ पहुँचते ही उत्तरी द्वार स्वत: सरसराहट की आवाज के साथ खुल जाता है। इस द्वार से निकलकर चक्रवर्ती भरत क्षेत्र के उत्तरार्द्ध भाग में अर्थात चतर्थ खंड में प्रवेश करते हैं। | भरतक्षेत्र के उत्तरार्ध भाग में आपात नामक महापराक्रमशाली अनार्य आदिवासी क्रूर भयंकर ऋद्धिवंत भील रहते हैं, उनके पास करोड़ों की सेना होती है, वे चक्रवर्ती के साथ महाभयंकर युद्ध करते हैं। भीलों के आक्रमण से चक्रवर्ती की सेना भी त्रस्त होकर भाग जाती है। सेना की अग्रपंक्ति भंग होने पर सेनापति आगबबूला होकर स्वयं मोर्चे पर आकर युद्ध करता है। वह चक्रवर्ती की तलवार को लेकर किरातों के प्रबल योद्धाओं को मार डालता है, कईयों को घायल और कईयों को मथ डालता है। तब वे म्लेच्छ निर्वस्त्र और ऊर्ध्वमुख होकर तेले की तपस्या के साथ अपने कुल देवता मेघमुख नागकुमार देवों का आह्वान करते हैं। देव वैक्रिय शक्ति से बादलों की विकुर्वणा कर मूसलाधार वर्षा करते हैं। चक्रवर्ती इस भयंकर वर्षा से अपनी सेना की रक्षा के लिये चर्मरत्न को 12 योजन तक विस्तृत करते हैं और निन्यानवे हजार स्वर्ण निर्मित शलाकाओं से युक्त छत्ररत्न को कुछ अधिक 12 योजन तिरछा फैला देते हैं। चर्मरत्न पर उनकी सारी सेना चढ़ जाती है, ऊपर छत्र तन जाता है तथा मणिरत्न के प्रकाश में गाथापतिरत्न धान्य, सब्जी आदि भोज्य सामग्री की संपूर्ण व्यवस्था कर देता है। इस प्रकार सात दिन-रात की भयंकर वर्षा में भी चक्रवर्ती की सेना को किसी भी प्रकार का तनिक भी कष्ट नहीं होता है। अंततः किरातों की धृष्टता देखकर कोपायमान चक्रवर्ती मेघकुमार देवों को फटकारते हैं, तब उपद्रव शांत होता है और सभी म्लेच्छ राजा चक्रवर्ती की शरण स्वीकार करते हैं। तदनन्तर चक्रवर्ती के आदेश से सेनापति सिन्धु महानदी के पश्चिमी भागवर्ती दूसरे निष्कुट-कोण प्रदेशों को जो पूर्व में सिन्धु महानदी में पश्चिम में समुद्र, उत्तर में चुल्लहिमवान पर्वत तथा दक्षिण में वैताढ्यपर्वत से मर्यादित है, उसके सम-विषम कोणस्थ स्थानों को जीतता है, वह तीसरा खंड कहलाता है। इसके पश्चात् चक्रवर्ती चुल्लहिमवान पर्वत के पास उसके बहिर्भाग और आभ्यन्तर भाग में अधिष्ठित सभी नागकुमार, असुरकुमार, सुपर्णकुमार देवों को अधीन करके तेले की तपस्या के साथ चुल्लहिमवान् गिरिकुमार को वश में करते हैं एवं उसे उत्तर दिशा का सीमारक्षक नियुक्त करते हैं। यहाँ से वे चतुर्थ खण्ड में स्थित 'ऋषभकूट पर्वत' के पास आकर रथ के अग्रभाग से उसका तीन बार स्पर्श करवाते हैं और काकिणी रत्न से पर्वत के पूर्वीय कटक मध्यभाग में अपना नामांकन करते हैं। वहाँ से दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की उत्तर दिशावर्ती तलहटी के पास सैन्य शिविर स्थापित कर विद्याधर राजाओं को साधने के लिये तेला करते हैं। यहाँ पर चक्रवर्ती को विश्व में अद्वितीय सुंदरी स्त्री-रत्न की प्राप्ति होती है। फिर वे वहाँ से उत्तर-पूर्व दिशा के पाँचवें खण्ड में गंगा देवी के भवन की ओर प्रयाण करते हैं। तेले की तपस्या के साथ गंगादेवी को वश करके गंगा के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा में खण्डप्रपात गुफा का द्वार खुलवाने हेतु नृत्तमालक अधिपति देव का ध्यान करते हुए तेला तप करते हैं। नृत्तमालक देव को वश में करने के बाद चक्रवर्ती सेनापति को गंगानिष्कूट के प्रदेश पर विजय प्राप्त करने का आदेश देते हैं। सेनापति पाँचवें खण्ड के सम-विषम स्थान पर विजय ध्वज फहराकर पुनः गंगा नदी पार कर छावनी में आता है। तब चक्रवर्ती 44 सचित्र जैन गणितानुयोग