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________________ ATTA तप करके उसके अधिपति देव को अपने वश में करते है। विजय के उपलक्ष में सर्वत्र अष्ट दिवसीय महोत्सव करते हैं। चक्ररत्न के दिशा दर्शन में चक्रवर्ती वहाँ से सिन्धु महानदी के दाहिने किनारे होते हुए पूर्व दिशा में सिन्धु देवी के भवन की ओर बढ़ते हैं। (सिंधु देवी का भवन उत्तरार्ध भरत में सिंधुप्रपात कुण्ड में, सिंधुद्वीप में और यहाँ भी है। महर्द्धिक देव-देवियों के भवन हर स्थानों पर होते हैं।) वहाँ पर पूर्ववत् ही शिविर डालकर तेला तप की आराधना करते हैं। सिन्धु देवी का आसन चलायमान होने पर वह अवधिज्ञान द्वारा चक्रवर्ती को आया जानकर उन्हें दो भद्रासन और 1008 रत्न-कलश भेंट करती है एवं उनकी आज्ञाकारिणी बन जाती है। यहाँ से वे उत्तर-पूर्व दिशा में ईशान कोण में वैताढ्य पर्वत की दाहिनी तलहटी पर सैन्य शिविर स्थापित कर वैताढ्य गिरिकुमार का ध्यान करते हुए तेला तप करते हैं। वैताढ्य गिरिकुमार भी उन्हें उपहार प्रदान कर आज्ञाकारी बन जाता है। इसके बाद चक्रवर्ती पश्चिम दिशा में स्थित तमिस्रा गुफा के द्वार खुलवाने हेतु 'कृतमाल देव' को उद्दिष्ट कर तेला तप करते है और अपने सेनापति को सिन्धु महानदी के पश्चिम में विद्यमान भरतक्षेत्र के कोणवर्ती द्वितीय खण्ड रूप सिंधु निष्कूट (कोने का) प्रदेश को अधिकृत करने का आदेश देते हैं। सिंधु के दक्षिण निष्कूट के पूर्व और दक्षिण की ओर सिंधु नदी, उत्तर में वैताढ्य पर्वत और पश्चिम की ओर लवणसमुद्र है। सिंधु नदी से वह अलग है। अतः उसे 'सिंधु निष्कूट' कहते हैं। सेनापति 12 योजन विस्तृत चर्मरत्न पर संपूर्ण सेना सहित आरूढ़ होकर सिंधु नदी को पार करता है और वहाँ के ग्राम, नगर, पट्टण आदि जीतता हुए सिंहल, बर्बर देश, यवन द्वीप, रोम और अरब देशों पर विजय प्राप्त कर उपहार आदि लेकर सिंध नदी पार कर चक्रवर्ती के पास आता है। तत्पश्चात् तमिस्र गुफा के दक्षिण द्वार के कपाटों की पूजा अर्चना एवं प्रणाम करके दण्डरत्न से कपाट पर तीन प्रहार करता है। तीसरे प्रहार में सरसराहट की आवाज के साथ कपाट खुल जाते हैं और चक्रवर्ती के उत्तरार्ध भरत तमिस्र गुफा का द्वार खोलता हुआ में जाने का मार्ग सरल हो जाता है। (चित्र क्रमांक 36) सुषेण सेनापति चित्र क्र. 36 चक्रवर्ती मणिरत्न को अपने हस्तिरत्न के मस्तक के दाहिने भाग पर बाँधकर गुफा के दक्षिणी द्वार से गुफा में प्रविष्ट होते हैं। मणिरत्न के प्रकाश से गुफा में आगे-आगे प्रकाश रहता है। पीछे आ रही सेना के प्रकाश के लिए चक्रवर्ती स्वयं काकिणीरत्न से गुफा की पूर्व-पश्चिम दिशा की भींतों पर प्रमाणांगुल से दोनों तरफ आधा-आधा मिलाकर एक योजन तक क्षेत्र को प्रकाशित करने वाले गोमूत्राकार/वर्तुलाकार 49 प्रकाश मण्डल (पूर्वी दीवार पर 24 और पश्चिमी दीवार पर 25) बनाते हैं। इससे गुफा में सूर्यवत् प्रकाश फैल जाता MUSL I MIRDuradatest 1. ये नदियाँ खण्डप्रपात गुफा के पश्चिमी भाग से निकलकर आगे बढ़ती हुई पूर्वी भाग में गंगा महानदी में मिलती है। सचित्र जैन गणितानुयोग 43
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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