________________ हैं। आने का कारण बताते हुए, भयभीत न होने का निवेदन करती हैं। फिर उस नगरी व आस-पास के एक योजन प्रमाण क्षेत्र की सफाई कर मंगलगीत गाती हैं। ___ऊर्ध्वलोक के मेरूपर्वत के नंदनवन से भी आठ दिशाकुमारियाँ इसी प्रकार आकर नगरी में सुगंधित जल व पुष्पवृष्टि करती हैं। रूचक द्वीप के पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण दिशा में रहने वाली 8-8 दिशाकुमारियाँ भी क्रमश: दर्पण, झारी, पंखा व चामर लेकर अपनी-अपनी दिशा में खड़ी रहती हैं। चार विदिशाओं की कुमारियाँ भी चारों विदिशा में दीपक लेकर खड़ी रहती हैं। फिर मध्य रूचक पर्वतवासिनी चार दिशाकुमारियाँ इसी विधि से आकर तीर्थंकर के नाभिनाल को चार अंगुल छोड़कर काटती हैं और गड्ढा खोदकर गाड़ती हैं। गड्ढे को रत्नों से पूरित कर उस पर चबूतरा बनाती है, फिर उसकी तीन दिशाओं में कदली गृह व उनमें सिंहासन की रचना करती हैं। दक्षिण दिशा के सिंहासन पर तीर्थंकर व माता का उबटन करती हैं, पूर्वी सिंहासन पर स्नान कराती हैं, उत्तरी सिंहासन पर चंदन का हवन कर राख की पोटली से रक्षासूत्र बाँधती हैं तथा दीर्घायु होने का आशीर्वाद देती हैं। उक्त कृत्य के बाद दोनों को यथास्थान लाकर सुला देती हैं। इस प्रकार 8 अधोलोक से, 8 ऊर्ध्वलोक और 40 रूचक द्वीप से कुल 56, दिशाकुमारियाँ तीर्थकर का शुचिकर्म करती हैं। तत्पश्चात् सौधर्मेन्द्र स्वयं तीर्थंकरों के जन्म स्थान पर जाकर पाँच रूप धारण करते हैं। एक रूप से भगवान को हाथ में उठाते हैं। दूसरे रूप से आगे वज्र लेकर चलते हैं। तीसरे रूप से पीछे छत्र लेकर चलते हैं एवं दो रूप से दायें-बायें चमर लेकर चलते हैं। इस प्रकार पाँच रूपों में सौधर्मेन्द्र भगवान को मेरूपर्वत पर लाकर अपनी गोद में बिठाते है, शेष इन्द्र सीधे ही मेरूपर्वत पर आते हैं, फिर अच्युतेन्द्र अर्थात् बारहवें देवलोक के इन्द्र के आदेश से जन्मोत्सव प्रारम्भ होता है। जन्माभिषेक हेतु इन्द्रों के आदेश से देव क्षीरसमुद्र से विविध जाति के कलशों में जल भरकर लाते हैं। ये सभी कलश 25 योजन ऊँचे, 12 योजन चौड़े, 1 योजन गहरे होते हैं। इनमें (1) सोने के, (2) चाँदी के, (3) रत्न के, (4) रत्न + सोने के, (5) रत्न + चाँदी के, (6) सोना + चाँदी के, (7) रत्न + सोना + चाँदी के, और (8) मिट्टी के-इस प्रकार आठ जाति के महाकलश 8,000 - 8,000 होते हैं। कुल 8 x 8,000 = 64,000 कलश होते हैं। इन एक-एक कलश के 250 अभिषेक किए जाते हैं। अतः 64,000 x 250= 1,60,00,000 (एक करोड़ साठ लाख) अभिषेक तीर्थंकर के होते हैं। ___मेरु की चूलिका-पण्डकवन के मध्य केन्द्र में 'मन्दर' नामक 40 योजन ऊँची चूलिका-चोटी है, जो मूल में 12 योजन, मध्य में 8 योजन तथा ऊपर 4 योजन चौड़ी है। इसका आकार गाय की पूँछ सदृश है। यह / वैडूर्य (नीलम) रत्नमय व उज्जवल है। चूलिका के ऊपर सिद्धायतन है। मेरूपर्वत के नाम-मेरूपर्वत के 16 नाम हैं-(1) मन्दर-मंदर देव के कारण, (2) मेरू-केन्द्र स्थान में होने से, (3) मनोरम-मन को रमण कराने के कारण, (4) सुदर्शन-दर्शन सुंदर होने के कारण, (5) स्वयंप्रभ-स्वयं प्रकाश्य होने से, (6) गिरिराज-सभी पर्वतो में ऊँचा होने से, (7) रत्नोच्चय-प्रचुर रत्न होने के कारण, (8) शिलोच्चय-पांडु आदि शिलाएँ होने के कारण, (9) लोकमध्य-तीन लोक के मध्य में होने से, (10) लोकनाभि-पुरुष की नाभि के समान होने से, (11) अच्छ-अत्यंत निर्मल, (12) सूर्यावर्त-सूर्य आदि प्रदक्षिणा करते हैं,(13) सूर्यावरण-सूर्य-चंद्र इसके आस-पास घूमते हैं,(14) उत्तम या उत्तर-सभी पर्वतों में उत्तम, (15) दिगादि-दिशा-विदिशा यहीं से निकली है तथा (16) अवतंस-मुकुट के समान सभी पर्वतों में ऊँचा। सचित्र जैन गणितानयोग 31