________________ अध्याय 3: मध्यलोक मध्यलोक एक राजू प्रमाण लंबा-चौड़ा 1800 योजन की ऊँचाई वाला तथा दस राजू घनाकार विस्तार वाला है। समतल भूमि अर्थात् मेरुपर्वत के मध्य में स्थित आठ रूचक प्रदेशों से 900 योजन ऊपर और 900 योजन नीचे इस प्रकार कुल 1800 योजन का क्षेत्र मध्यलोक' कहलाता है। मध्यलोक में जंबूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत असंख्यात द्वीप समुद्र एक राजू प्रमाण तिर्यक् समभूमि पर तिरछे व्यवस्थित हैं, अत: इसे तिर्यक्लोक' या 'तिरछालोक' भी कहते हैं। इसके अलावा मुख्य रूप से मनुष्यों का निवास स्थान यहाँ होने से इसे 'मनुष्यलोक' भी कहा जाता है। मध्यलोक में 790 योजन ऊपर से लेकर 900 योजन क्षेत्र में ज्योतिष्क चक्र अवस्थित है। नीचे के 900 योजन में 10 योजन नीचे से लेकर 800 योजन तक के क्षेत्र में वाणव्यन्तर और व्यन्तर देवों के आवास हैं। इन दोनों के बीच अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी की छत पर मनुष्य और तिर्यंचों का निवास है। - व्यंतर व वाणव्यन्तर देव / _ 'वि' अर्थात् विविध प्रकार के 'अंतर' अर्थात् आश्रय जिनके हों, वे व्यंतर हैं। भवन, नगर और आवासों में विविध जगहों पर रहने के कारण ये देव 'व्यंतर' कहलाते हैं तथा जो देव वनों के विविध पर्वतान्तरों, कंदरान्तरों आदि आश्रयों में रहते है, और वन में परिभ्रमण करने के शौकिन होते हैं, वे वाणव्यंतर देव हैं। - व्यंतरों के आवास / / ये दोनों जाति के देव चंचल स्वभाव के होते हैं। इन्हें गीत, नृत्य, संगीत बहुत प्रिय होता है। अतः अपने मनोहर नगरों में देवियों के साथ नृत्य गान करते हुए पूर्वोपार्जित पुण्यों के फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। इनके आवास समतल भूमि के नीचे 900 योजन तक है यह क्षेत्र मध्यलोक में आता है। अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर का जो एक हजार योजन का पृथ्वीपिंड है, उसमें ऊपर-नीचे 100-100 योजन छोड़कर शेष 800 योजन की पोलार में असंख्यात संदर नगर हैं. वे असंख्यात द्वीप-समुद्र तक फैले हुए हैं इनमें 8 प्रकार के व्यंतर जाति के देव रहते हैं। जैसे-(1) पिशाच,(2) भूत,(3) यक्ष,(4) राक्षस,(5) किन्नर,(6) किंपुरूष,(7) महोरग एवं (8) गन्धर्व तथा ऊपर के 100 योजन में 10 योजन ऊपर और 10 योजन नीचे छोड़कर बीच में 80 योजन की पोलार में भी असंख्यात नगर हैं और इन नगरों में आठ प्रकार के वाणव्यंतर जाति' के देव रहते है। उनके नाम हैं-(1) आनपन्नी, (2) पानपन्नी, (3) इसीवाइ, (4) भूइवाइ, (5) कन्दिय, (6) महाकन्दिय, (7) कोहण्ड,(8) पयंगदेव। (चित्र क्रमांक 21) व्यंतर और वाणव्यंतरों के आवास अति विस्तृत होते हैं। इनका छोटा से छोटा नगर भरतक्षेत्र के बराबर मध्यम महाविदेह क्षेत्र के बराबर और बड़ा से बड़ा जंबूद्वीप के बराबर है। ये सभी नगर बाहर से गोल अन्दर से चौरस तथा नीचे कमल कर्णिका के आकार में संस्थित हैं। उनके चारों ओर विस्तृत खाईयाँ हैं। 24 सचित्र जैन गणितानुयोग