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________________ (11) कुम्भ-ये नारकियों को नींबू की तरह चीर-फाड़ कर उसमें नमक मिर्च आदि भरकर कुम्भी में पकाते हैं। (12) बालुक-ये भड़भूजे की तरह नारकियों के शरीर को उष्ण रेती में चने आदि की तरह पूंजते हैं। (13) वेतरणी-ये असुर वेतरणी नदी पर ले जाकर नारकियों को शिला पर पछाड़-पछाड़कर मारते हैं तथा माँस रूधिर आदि पदार्थो से उबलती हुई नदी में नारकियों को फैंक देते है। (14) खरस्वर-ये देवता शाल्मलि वृक्षों पर नारकियों को बिठलाकर हवा चलाते हैं उनके तीखें पत्तो से नारकियों के अंग कट जाते हैं। कई बार शाल्मलि वृक्षों पर चढ़ाकर करूण चीत्कार करते हुए नारकियों को खींचते हैं। (15) महाघोष-ये देव घोर अन्धकार से व्याप्त संकरे कोठे में नारकियों को ढूंस-ठूस कर खचाखच भरते हैं और वहीं रोक रखते हैं। परमाधर्मी देवों में ऐसे जीव जन्म लेते है, जो अग्नि, जल और वनस्पति के अनन्त जीवों की घात करके अज्ञानतप करते हैं। वे स्वल्प पुण्यों के उदय से मरकर निम्न जाति के परमाधर्मी देव बन जाते हैं तथा पूर्व जन्म के कुसंस्कारों से प्रेरित होकर नारकी जीवों को दुख देते हैं। . परमाधर्मी देवों की जलचर मनुष्यों में उत्पत्ति नारकी जीवों को दुःख देने वाले परमाधर्मी देव भी मरकर सूअर, बकरे, मुर्गे आदि नीच योनियों में उत्पन्न होते हैं अथवा अंडगोलिक जलचर मनुष्य बनते हैं। ग्रंथों में इन मनुष्यों के विषय में ऐसा वर्णन आता है कि ये श्यामवर्णी, कठोर स्पर्शी और घोर भयानक दृष्टि वाले वज्रऋषभनाराच संघयण के धारक महापराक्रमी माँस-मदिरा और स्त्री लोलुपी होते हैं। ये साढ़े 12 हाथ की अवगाहना और संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं। 0 ये जलचर मनुष्य सिंधुनदी जहाँ लवण समुद्र में मिलती है, वहाँ से दक्षिण दिशा में 55 योजन दूर एक वेदिका में 12% योजन लम्बी जगह पर 47 अंधकारमय गुफाओं में जन्म लेते हैं। वहाँ समुद्र की गहराई 37 योजन है। _यहाँ से 31 योजन दूर रत्नद्वीप है। वहाँ के मनुष्य वज्र निर्मित घट्टियों को माँस-मदिरा से लिप्तकर तूंबों से बने वाहन में डालकर समुद्र में आते हैं। माँसलोलुपी जलचर मनुष्य माँस-मदिरा के लालच में उन घट्टियों में गिरते हैं। रत्नद्वीपवासी मनुष्य दो-तीन दिन के पश्चात् शस्त्रसज्जित होकर वहाँ आते हैं और उन घट्टियों को चारों ओर से घेर लेते हैं। घट्टियों को एक वर्ष तक घुमाने पर भी उनकी हड्डियाँ टूटती नहीं हैं। इतने समय तक भयंकर वेदना को सहन करने के बाद वे मृत्यु प्राप्त करके नरक में उत्पन्न होते हैं। रत्नद्वीपवासी उनके शरीर से अंडगोलिक को निकालकर चमरी गाय की पूँछ के बाल से गूंथकर कान में लटकाते हैं और रत्न प्राप्त करने के लिये समुद्र में प्रवेश करते हैं। अंडगोलिक के प्रभाव से मत्स्य आदि जलचर जीव उन्हें तकलीफ नहीं देते और वे सुखपूर्वक रत्न प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार परमाधर्मी देव अनेक क्षुद्रयोनियों में असंख्य या अनन्तकाल परिभ्रमण करते रहते हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग AAAAAAAD 23
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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