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________________ समभूतला पृथ्वी स्थान वाण व्यंतर निकाय स्थान 210 योजन 1-80 योजन 10 योजन निकाय दक्षिण निकाय उत्तर निकाय 800 यो 100 योजन ___ व्यंतर देवों की मेरु पर्वत ऋद्धि-स्थान की अपेक्षा से शून्य पृथ्वी पिण्ड रु इन दोनों जाति के देवों के दो-दो विभाग हैं-दक्षिण विभाग और उत्तर विभाग। इन विभागों में रहने वाले 16 प्रकार के देवों की एक-एक जाति में 3. दो-दो इन्द्र हैं, अतः कुल 32 इन्द्र हैं। प्रत्येक इन्द्र के 4-4 हजार सामानिक देव, 16-16 5. व्यंतर हजार आत्मरक्षक देव, 4-4 अग्रमहिषियाँ हैं। प्रत्येक अग्रमहिषी के एक-एक हजार का परिवार है। सात अनीक हैं, तीन परिषद् हैं। आभ्यंतर परिषद् के 8000 देव, मध्यम शून्य पृथ्वी पिण्ड परिषद् के 10 हजार देव और बाह्य परिषद के 12 हजार समभूतला पृथ्वी स्थान तथा वाणव्यन्तर व्यन्तर निकाय स्थान देव हैं। चित्र क्र.21 आभ्यंतर परिषद् को 'ईशा', मध्यम परिषद् को 'त्रुटिता' और बाह्य परिषद् को 'दृढ़रथा' कहा जाता है। तीनों परिषद् में देवियों की संख्या 100-100 है। इन सभी देवों की आयुष्य जघन्य 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट 1 पल्योपम की है। देवियों की आयु जघन्य 10 हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम की है। व्यंतर देवों में उत्पत्ति के कारण-गले में फाँसी लगाकर मरने वाले, विष भक्षण कर मरने वाले, किसी के विरह में दुःखी होकर मरने वाले, नदी तालाब में डूबकर मरने वाले, पर्वत के शिखर से गिरकर मरने वाले व्यक्ति प्राय:व्यंतर जाति में पैदा हो जाते हैं। पशु-पक्षी भी भूख-प्यास न सह सकने की स्थिति में मरकर व्यंतर में उत्पन्न हो जाते हैं। अकाल मृत्यु के कारण देवयोनि में जन्म लेने के बाद भी इनका स्वभाव भटकने का ही होता है। अतः ये अपने नगरों से निकलकर मनुष्य क्षेत्र में भटकते रहते हैं। जहाँ इन्हें अच्छा लगा, वहीं निवास कर लेते हैं। वृक्ष की कोटर, बगीचे, कुएँ, बावड़ी या पर्वत की कंदरा, गुफा, जीर्ण-शीर्ण मकान आदि जो भी जगह इन्हें पसंद आ जाय, वहीं अपना अड्डा जमा लेते हैं। किन्तु सभी व्यंतर देव इस स्वभाव वाले नहीं होते, क्योंकि तीर्थंकर भगवान के यक्ष-यक्षिणी, घंटाकर्ण, मणिभद्र, क्षेत्रपाल, भैरव, छप्पन दिशाकुमारियाँ, चक्रेश्वरी पद्मावती, सरस्वती और लक्ष्मी आदि देव-देवियाँ भी व्यंतरनिकाय के ही मान जाते हैं। अतः | इस पर यह अनुमान किया जा सकता है कि सभी व्यंतर देव-देवी दुष्ट नहीं होते, बल्कि सात्त्विक विचार वाले सम्यग्दृष्टि भी होते हैं। क्षेत्रसमास और भगवतीसूत्र की टीका में सरस्वती देवी को इन्द्र की अग्रमहिषी कहा है। सचित्र जैन गणितानुयोग AAAAAE 25
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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