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________________ नरक के जीवों की वेदना-नारकी जीवों को प्रमुख रूप से तीन प्रकार की वेदना होती है1. परमाधर्मीदेवकृत वेदना, 2. क्षेत्रकृत वेदना, और 3. परस्परकृत वेदना। 1. परमाधर्मीकृत वेदना-परमाधर्मिक एक प्रकार के असुरदेव होते हैं, जो प्रथम तीन नरकों तक जाकर नारकियों को अनेक प्रकार से पीड़ित करते रहते हैं। उन्हें रोते व चिल्लाते देखकर बहुत खुश होते हैं। 2. क्षेत्रकृत वेदना-नारकियों को दस प्रकार की क्षेत्र वेदना निरंतर होती है-1. शीतवेदना, 2. उष्णवेदना, 3. क्षुधा वेदना, 4. पिपासा वेदना, 5. कण्डु-खुजली वेदना, 6. परजन्य-परजनित या परतंत्रता का कष्ट, 7. भय, 8. शोक, 9. जरा-बुढ़ापा, 10. व्याधि वेदना-ये सभी वेदनाएँ सातों नरकों में उत्तरोत्तर असंख्यात गुणा अधिक हैं। पहली तीन नरकों में उष्ण वेदना, चतुर्थ में उष्ण शीत, पाँचवी में शीतउष्णवेदना अर्थात् यहाँ शीत की प्रधानता है, उष्णता कम। छठ्ठे में शीत और सातवें में महाशीत वेदना है। उष्णता और शीतता की यह वेदना नरकों में इतनी सख्त होती है कि इस वेदना को भोगने वाला नारकी यदि मनुष्यलोक की भीषण गर्मी या कड़कड़ाती सर्दी में आ जाए तो उसे बड़े आराम से नींद आ सकती है। छठी और सातवी नरक में नारकी को हमेशा 5,68,99,585 रोग उदय में रहते है, एवं भयंकर वेदना उत्पन्न करते हैं। ___3. परस्परकृत वेदना-नारकी जीवों को परमाधर्मीदेवकृत एवं क्षेत्रकृत वेदना तो है ही, साथ ही वे आपस में भी एक-दूसरे को पीड़ित एवं प्रताड़ित करते रहते हैं। वे अनेक प्रकार के तीक्ष्ण और दुसह्य शस्त्रों की विकुर्वणा करके एक-दूसरे पर प्रहार करते हैं। विक्रिया द्वारा वे दूसरों को अतिकर्कश, कटुक, निष्ठुर वचन बोलकर दुसह्य वेदना देते हैं। यह विकुर्वणा रूप वेदना पाँचवीं नरक तक समझनी चाहिए। छठी और सातवी नरक में तो नारक जीव वज्रमय मुख वाले लाल और गोबर के कीड़े के समान बड़े-बड़े कुन्थुओं का रूप बनाकर एक-दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं और काट-काटकर अंदर तक घुस जाते हैं। जैसे इक्षु का कीड़ा इक्षु को खा-खाकर छलनी कर देता है, वैसे ही वे एक-दूसरे के शरीर को छलनी करके वेदना पहुँचाते रहते हैं। सैंकड़ों वेदनाओं में साता के कुछ क्षण-जीवाभिगमसूत्र में कहा है कि यद्यपि नरक में निमेष मात्र भी सुख नहीं है, तथापि कुछ अपवाद है उववाएण व सायं नेरइओ देव-कम्मुणा वा वि। अज्झवसाण निमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं॥ (तृतीय प्रतिपत्ति, तृतीय उद्देशक गाथा-6) 1. उपपात-अग्नि या शस्त्र आदि के बिना सहज रूप में मृत्यु को प्राप्त हुआ जीव जब नरक में जाता है, तब उत्पत्ति के समय असाता का वेदन नहीं करता है। 2. देव प्रभाव से-कोई जीव पूर्वभव के मित्र देव के प्रभाव से स्वल्प समय के लिए साता का वेदन करता है। 3. अध्यवसाय से-कोई सम्यक्दृष्टि नैरयिक विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से बाह्य क्षेत्रज आदि वेदनाओं के होते हुए भी असाता का अनुभव नहीं करता है। 4. कल्याणक पर-तीर्थंकरों के च्यवन जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक के अवसर पर नैरयिक जीव क्षण भर के लिए साता का अनुभव करते हैं। सचित्र जैन गणितानयोग 17
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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