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________________ तहाँ भूमि परसत दुःख इसो। वीछू सहस डसे तन तिसो॥ रोम-रोम काँप उठे, कान के परदे फट जाए, ऐसी भयंकर चीखें वहाँ निरन्तर चलती रहती हैं। नारकियों की करूण चीत्कारों से वहाँ का वातावरण सदा अशांत बना रहता है। नारकियों का उत्पत्ति स्थान-नारकी जीव नरकावासों की दीवारों में बिल के आकार के योनिस्थान जिन्हें 'कुम्भी' कहा जाता है, वहाँ 'अहो सिरो कटटुं उवेइ दुग्गं' अर्थात् सिर नीचा और पाँव ऊपर करके उत्पन्न होता है। ये कुम्भियाँ चार प्रकार की होती हैं-1. ऊँट की गर्दन के समान टेढ़ी-मेढ़ी, 2. घी की कुप्पी के समान मुख संकड़ा और अधोभाग चौड़ा, 3. डिब्बे जैसी ऊपर-नीचे समान परिमाण वाली और 4. अफीम के डोडे जैसी-पेट चौड़ा और मुख संकड़ा। एक मुहूर्त काल में ही वे नारकी वहाँ छहों पर्याप्तियों से पूर्ण हो जाते हैं। पूर्ण देहमान वाले होने से संकरी कुम्भी में बुरी तरह से फँस जाते हैं, कुम्भी की तीखी धारें उन्हें चारों ओर से चुभती है और नारकी जीव वेदना से तिलमिलाने लगते हैं। उस समय पहली से तीसरी नरक तक परमाधर्मी देव तथा शेष नरकों में पूर्वोत्पन्न नारकी जीव उन्हें चीमटे या संडासी से पकड़कर खींचते हैं। नारकी जीव खण्ड-खण्ड होकर उसमें से निकलते हैं। इस प्रकार उत्पत्ति के प्रथम क्षण से ही वे घोर मारणान्तिक वेदना का अनुभव करते है, किन्तु मरते नहीं, क्योंकि ये अनपवर्त्तनीय आयुष्य वाले होते हैं। उनका शरीर छिन्न-भिन्न होकर भी पारे की तरह पुनः मिल जाता है। जब तक आयुष्य पूर्ण नहीं होता, तब तक वे इसी प्रकार मृत्यु तुल्य वेदना का क्षण-प्रतिक्षण वेदन करते रहते हैं। . / नारकी जीवों की संख्या-प्रत्येक नरक में असंख्यात नारकी हैं। असत्कल्पना से कोई एक-एक नारकी की प्रतिसमय गिनती करता चला जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणी और असंख्यात अवसर्पिणी बीत जाने पर भी एक नरक के संपूर्ण नारकी नहीं गिने जा सकते। ये सभी नारकी नपुसंक होते हैं, इनमें स्त्री-पुरूष का भेद नही होता। नारकी जीवों के लेश्या-परिणाम-पहली नरक भूमि से दूसरी और दूसरी से तीसरी इस प्रकार सातवीं नरक भूमि तक के नारक अशुभ, अशुभतर और अशुभतम शरीर रचना वाले हैं। उन नरकों में स्थित नारकों की लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया भी उत्तरोत्तर अशुभ है। रत्नप्रभा में कापोत लेश्या है। शर्कराप्रभा में भी कापोत है, पर रत्नप्रभा से अधिक तीव्र संक्लेशकारी है। बालुकाप्रभा में कापोत-नील लेश्या है। पंकप्रभा में नील लेश्या है। धूमप्रभा में नील-कृष्ण लेश्या है। तम:प्रभा में कृष्ण लेश्या है और महातमःप्रभा में भी कृष्ण लेश्या है, पर तम:प्रभा से तीव्रतम है। 1. आयु दो तरह की होती है-अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय / जो आयु बन्ध-कालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले ही भोगी जा सके वह अपवर्तनीय और जो आयु बन्ध कालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके वह अनपवर्तनीय आयु कहलाती है। औपपातिक जीव (नारकी और देव), चरम-शरीरी (जन्मान्तर किए बिना इस शरीर से मोक्ष जाने वाले), उत्तम पुरूषों (तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि) और असंख्य वर्षों की आयु वाले जीव अनपवर्तनीय आयु वाले ही होते हैं। 16 सचित्र जैन गणितानुयोग
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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