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________________ यथावत् रहती है। सिद्धजीवों की यह गतिक्रिया अंतिम है, लोकान्त में अवस्थित हो जाने के बाद वे आत्म-प्रदेश वहीं स्थिर व अकम्प हो जाते हैं। सिद्ध जीवों की विशेष जानकारी के लिए 9 द्वार कहे गये हैं (1) सत्पद प्ररूपणा-मोक्ष सदा से था और सदा रहेगा। (2) द्रव्य द्वार-सिद्ध अनन्त हैं वे अभवी जीवों से भी अनन्त गुणे अधिक हैं। (3) क्षेत्र-सिद्ध जीव सिद्धशिला के ऊपर 1 योजन के अंतिम कोस के छठे भाग में 333 धनुष 32 अंगुल प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। (4) स्पर्शन-क्षेत्र से कुछ अधिक भाग का वे स्पर्श करते हैं। (5) काल-एक सिद्ध की अपेक्षा आदि है अन्त नही। सभी सिद्धों की अपेक्षा सिद्ध अनादि अनन्त है। (6) भाग–वे लोक के असंख्यातवें भाग पर रहते हैं। (7) भाव-सिद्धों में क्षायिक भाव, जीवत्व भाव और परिणामिक भाव है। (8) अन्तर-सिद्ध जीव पुनः लौटकर नहीं आते, अतः उनका अन्तर नहीं पड़ता। (9) अल्पबहुत्व-सबसे कम नपुंसक सिद्ध होते हैं, उससे स्त्री पर्याय से सिद्ध होने वाले संख्यात हैं और पुरूष उससे संख्यात गुणा अधिक सिद्ध होते हैं। एक समय में नपुंसक 10 स्त्री 20 और पुरूष 108 सिद्ध हो सकते हैं। _ मोक्ष के योग्य अधिकारी-(1) भव्यसिद्धिक, (2) बादरजीव, (3) त्रसजीव, (4) संज्ञी, (5) / पर्याप्त, (6) वज्र ऋषभ नाराच संघयण वाला, (7) मनुष्य गति, (8) अप्रमादी, (9) क्षायिक सम्यक्त्वी , | (10) अवेदी, (11) अकषायी, (12) यथाख्यातचारित्री, (13) स्नातक निग्रंथ, (14) परम शुक्ललेश्यी, / (15) पंडितवीर्य, (16) शुक्लध्यानी, (17) केवलज्ञानी, (18) केवलदर्शनी और (19) चरम शरीरी-ये | 19 प्रकार के जीव मोक्ष के अधिकारी हैं। / सभी मुक्त आत्माएँ शरीर रहित हैं, अतः शरीर सम्बन्धी किसी भी प्रकार की उपाधि वहाँ पर नहीं है। वहाँ जन्म, जरा, मरण, भय, रोग, शोक, दुःख, दरिद्रता, कर्म, काया, मोह, माया नहीं है। वहाँ स्वामी-सेवक व्यवहार भी नहीं है। वहाँ न भूख है न प्यास, न रूप है न रस-गंध-स्पर्श / वहाँ न स्त्री है, न पुरूष है न नपुंसक। मात्र संपूर्ण ज्ञाता-परिज्ञाता और शुद्ध निर्मल आत्मा है। सिद्धों के मुख्य आठ गुण हैं। जो अष्टकर्मों का क्षय करने पर प्रगट हुए-(1) अनन्तज्ञान, (2) अनन्तदर्शन, (3) अनन्त सुख, (4) अनन्तचारित्र, (5) अटल अवगाहना,(6) अमूर्तिक,(7) अगुरूलघु,(8) अनन्तवीर्य। वे ज्योति में ज्योति की तरह एक दूसरे में समाये हुए है। जहाँ एक सिद्ध है वहाँ अनन्त सिद्ध है और जहाँ अनन्त सिद्ध है वहाँ एक सिद्ध है। वे अपने केवलज्ञान के द्वारा संसार के समस्त द्रव्य-पर्यायों को एक साथ देखते हैं। वे पौद्गलिक सुख-दु:खों से रहित होकर अनन्त आत्मिक सुखों में सदा ही लीन परम आत्म ज्योति स्वरूप है। उस चरम व परम सच्चिदानंद अवस्था को प्राप्त करना ही हमारा लक्ष्य है। सचित्र जैन गणितानुयोग 155
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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