________________ अध्याय 4 : ऊर्ध्वलोक ज्योतिष्क लोक में शनैश्चर विमान की ध्वजा के बाद वहीं पर मध्यलोक का अन्त एवं ऊर्ध्वलोक का प्रारम्भ माना गया है, जो लोकान्त तक जाकर समाप्त होता है। ऊर्ध्व लोक की ऊँचाई 1,800 योजन न्यून 7 राजू प्रमाण है। दूसरे ईशान देवलोक तक डेढ़ राजू, चौथे माहेन्द्र देवलोक तक ढाई राजू, आठवें सहस्रार देवलोक तक चार राजू, बारहवें अच्युत देवलोक तक पाँच राजू तथा लोकान्त तक सात राजू हो जाता है। सात राजू प्रमाण क्षेत्र में मुख्यत: 12 कल्पवासी देव, 9 ग्रेवेयक, 5 अनुत्तर विमान और सिद्धशिला पृथ्वी आती है। देवताओं की निवास भूमि होने के कारण ऊर्ध्वलोक को 'अमरलोक' या 'देवलोक' भी कहा जा सकता है। यह ऊर्ध्वलोक मृदंग के आकार का है। मध्यलोक की सीमा समाप्ति पर यह एक राजू है, उसके बाद साढ़े तीन राजू परिमाण ऊँचे क्षेत्र तक लोक के विस्तार में वृद्धि होती गई है, फिर साढ़े तीन राजू तक क्रमशः घटते-घटते लोकान्त पर एक राजू प्रमाण चौड़ाई रह जाती है। (चित्र क्रमांक 95) - बारह कल्पोपपन्न देवलोक | 1-2 सौधर्म और ईशान देवलोक-शनि के विमान की ध्वजा से डेढ़ राजू ऊपर और 19-1/2 राजू घनाकार विस्तार में घनोदधि के आधार पर जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत से दक्षिण दिशा मेंप्रथम सौधर्म और उत्तर .. दिशा में दूसरा ईशान देवलोक है। ये पूर्व-पश्चिम लम्बे और उत्तर-दक्षिण में चौड़े हैं। दोनों देवलोक अर्द्ध चन्द्राकार में स्थित हैं। दोनों देवलोकों का भूमिभाग एक होने से दोनों मिलकर पूर्णचन्द्र के आकार वाले हैं। दोनों देवलोकों में 13-13 प्रतर एक के ऊपर एक (जैसे मकान में मंजिल) हैं। इन प्रतरों में 500-500 योजन ऊँचे और 2,700 योजन भूमि में गहरे विमान (आवास) हैं। प्रथम देवलोक में 32 लाख व दूसरे देवलोक में 28 लाख विमान हैं। प्रथम देवलोक के इन्द्र का नाम 'शक्रेन्द्र' और दूसरे देवलोक के इन्द्र का नाम 'ईशानेन्द्र' है। इन दोनों इन्द्रों की 8-8 अग्रमहिषियाँ (इन्द्राणियाँ) हैं। प्रत्येक इन्द्राणी का 16-16 हजार देवियों का परिवार है। पहले देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम व उत्कृष्ट दो सागरोपम की है। इनकी परिगृहीता देवी की आयु जघन्य एक पल्योपम की और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है। दूसरे देवलोक के देवों की आयु जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम से कुछ अधिक है। दोनों देवलोकों में 2,000 वर्ष के बाद भोजन की इच्छा होती है और इच्छा मात्र से ही इन्हें डकार आ जाती है एवं पेट भर जाता है। दोनों देवलोकों में देवों की देह सात हाथ की होती है। दूसरे देवलोक तक देव तथा देवी दोनों उत्पन्न होते हैं और मनुष्य की ही तरह मैथुन का सेवन करते हैं। प्रथम देवों के मस्तक मुकुट में मृग का चिह्न होता है, दूसरे देवलोक के देवों के मुकुट में महिष का चिह्न होता है। 60 3-4 सनत्कुमार व माहेन्द्र देवलोक-पहले दूसरे देवलोकों की सीमा के 1 राजू ऊपर अर्थात् समभूमि से अढ़ाई राजू ऊँचे साढ़े सोलह रज्जू घनाकार विस्तार में घनवात (जमी हुई हवा) के आधार पर दक्षिण दिशा में सचित्र जैन गणितानयोग 139