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________________ मंडल की ओर गमन करना उत्तरायण है। और सर्वाभ्यन्तर मंडल से सर्वबाह्य मंडल की ओर गमन करना दक्षिणायन है। जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मंडल पर परिभ्रमण करता है, वह दिन कर्क संक्रान्ति' का होता है, उसके दूसरे दिन से दक्षिणायन प्रारम्भ होता है। श्रावण कृष्णा एकम को पूर्वीय अथवा भारतीय सूर्य निषध पर्वत के समीप से। दूसरे मंडल पर जब जाता है, तब भरत क्षेत्र में नववर्ष तथा पश्चिमी अथवा ऐरावतीय सूर्य नीलवान पर्वत के समीप से दूसरे मंडल पर जाता है तब ऐरावत क्षेत्र में नये वर्ष का प्रारम्भ होता है। इसी प्रकार सूर्य जब सर्वबाह्य मंडल पर परिभ्रमण करता है। वह दिन 'मकर संक्रान्ति' का होता है और उसके दूसरे दिन उत्तरायण का प्रारम्भ होता है। अथवा जिस दिन किसी भी वस्तु की छाया वस्तु के प्रमाण के अनुसार होती है, वह दिन दक्षिणायन का प्रथम दिन होता है। श्रावण कष्णा एकम को जान की छाया अपने ही प्रमाण के अनसार 24 अंगल पडती' अतः दक्षिणायन श्रावणमास से प्रारंभ होता है और उत्तरायण माघ मास से। इसी प्रकार आषाढ शुक्ला पूनम उत्तरायण का अंतिम दिन तथा पौष शुक्ला पूनम दक्षिणायन का अंतिम दिन है। उत्तरायण और दक्षिणायन में सूर्य की प्रदक्षिणा के कारण समग्र विश्व का तंत्र व्यवस्थित चलता है। इसीलिए भारतीय ज्योतिष ग्रंथों में काल, कोष्ठक गणित आदि व्यवस्थित देखने को मिलता है। छाया का प्रमाण-दक्षिणायन में छाया बढ़ती है और उत्तरायण में कम होती है। इसमें छाया का आकार वही होता है जो वस्तु का आकार होता है। गोल वस्तु की छाया का आकार गोल, चौरस वस्तु की छाया का आकार चौरस और वटवृक्ष की छाया वटवृक्ष के आकार की होती है। छाया की लम्बाई में हानि-वृद्धि होती है, आकार में नहीं / आकार तो प्रकाश्य वस्तु के समान ही होता है। ____पौरूषी प्रमाण-जैन धर्म में 'पौरूषी' का अत्यधिक महत्त्व है। साधु को स्वाध्याय करना हो या तप, प्रत्येक क्रिया में पौरूषी का प्रमाण देखा जाता है। पौरूषी का अर्थ है-'पुरूष प्रमाण छाया अथवा वस्तु प्रमाण छाया'। सूर्योदय के समय छाया पुरूष के प्रमाण से लम्बी होती है, वह जब घटते-घटते पुरूष के अपने शरीर प्रमाण रह जाय तब उसे 'पौरूषी' कहा जाता था। सूर्योदय से सूर्यास्त तक के समय को चार भागों में विभाजित करके दिन की चार पौरूषी इसी प्रकार रात्रि की चार पौरूषी मानी गई है। किंतु सदा ही पौरूषी पुरूष प्रमाण छाया जितनी नहीं होती। दिन और रात्रि के समय में सदा 2/61 भाग की हानि-वृद्धि होती रहने के कारण पौरूषी प्रमाण में भी हानि-वृद्धि होती है। उसे प्रत्येक मास में पाद और अंगुल के माध्यम से समझाया गया है। दक्षिणायन उत्तरायण क्रम | मास पौरूषी | वृद्धि क्रम मास | पौरूषी | हानि 1. श्रावण | 2 पाद 4 अंगुल | 4 अंगुल 1. | माघ | 3 पाद 8 अंगुल | 4 अंगुल भाद्रपद | 2 पाद 8 अंगुल | 8 अंगुल |2. | | फाल्गुन 3 पाद 4 अंगुल | 8 अंगुल आसोज 3 पाद 1पाद चैत्र 3 पाद कार्तिक 3 पाद 4 अंगुल 1पाद 4 अंगुल 4. वैशाख 2 पाद 8 अंगुल 1 पाद 4 अंगुल | मार्गशीर्ष | 3 पाद 8 अंगुल | 1 पाद 8 अंगुल | ज्येष्ठ 2 पाद 4 अंगुल | 1 पाद 8 अंगुल पौष 4 पाद 2 पाद आषाढ़ | 2 पाद 2 पाद 3. 1पाद सचित्र जैन गणितानुयोग 113
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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