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________________ वनस्पतियों के स्वलेख पड़ने लगता है। जो चिह्न यों किसी तरह नहीं दिख सकते, उन्हें मैं धातुपट्ट (Metallic plate) पर अंकित करने में समर्थ हो सका / जब उस स्थान को विकीर्ण उद्दीपना दी जाती है तब अदृश्य बिम्ब आसानी से दिखने लगते हैं / इसी प्रकार हमारे संवेदी तल पर जो विम्ब बनते हैं, वे गुप्त स्मति-बिम्बों की तरह छिपे रहते हैं और ये इच्छा की उद्दीपना के आघात से पुनरुज्जीवित हो जाते हैं / इसका अर्थ यह है कि स्मृति के पुनरावर्तन का कारण है गुप्त बिम्बों को जगाने के लिए चित्रित तल पर शक्तिशाली उद्दीपना डालना। अब हमने देखा है कि मृत्यु के संघर्ष में अवयवों के प्रत्येक भाग में विद्युत् अंग-संकुचन फैल जाता है और यह शक्तिशाली प्रसृत (Difuse) उद्दीपन, जो अब अनैच्छिक हो जाता है, एक ऐसे आघात का रूप धारण कर सकता है जिसमें एक-एक करके दिये गये स्मृति-बिम्ब क्षण भर के लिए कौंध जायें। ___ मृत्यु का अंग-संकुचन साधारण वनस्पति में मृत्यु के चिह्न, जैसे झुकना, मुरझाना और विवर्ण होना ठीक मृत्यु के ही समय नहीं बल्कि बाद में प्रकट होते हैं। मृत्यु-बिन्दु से आगे तापमान के जाने पर भी वनस्पति कुछ समय तक नूतन और जीवित दिखती है / तब कौन-सा जीवित पौधा है और कौन सा मृत, यह कहना कैसे सम्भव है और उसके यथार्थ पारगमन (Transition) का समय कैसे जाना जा सकता है ? इस भिन्नता का ज्ञान तभी सम्भव है जब यह निरीक्षण किया जाय कि जीवित अवस्था की कोई लाक्षणिक प्रतिक्रिया कब लुप्त होती है। किन्तु आदर्श रीति तो यह होगी कि उस प्रतिक्रिया की खोज की जाय जो मृत्यु के समय अकस्मात् विपरीत दशा में परिवर्तित हो जाती है / तब रञ्चमात्र भी संशय नहीं रह जायगा जिसका निर्धारण लुप्त होते हुए, क्षीण होने वाले प्रभाव से अविभेद्य हो / मैंने वनस्पति में मृत्यु के समय के अंग-संकुचन का उद्घाटन कर इस आदर्श रीति से काम लेना सम्भव किया है। मृत्यु के समय का यह अंग-संकुचन प्राणी की मृत्यु-वेदना से मिलता-जुलता है। ___वनस्पति में मृत्यु का अभिलेख प्राप्त करने के लिए दो उपयुक्त विभिन्न रीतियाँ खोजी गयी हैं। पहली है, पौधे को लगातार ऊपर उठते हुए तापमान में रखना, जब तक कि मृत्यु-बिन्दु न पहुँच जाय। दूसरी रीति, जो पहली जैसी आदर्श नहीं है, वह हैं विष का पतला घोल बनाकर उसमें पौधे को रखना। इसमें विष की मात्रा और उसकी प्रचण्डता पर निर्भर मृत्यु-बिन्दु अल्प या दीर्घ समय के बाद आता है।
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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