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________________ अध्याय 6 जीवन और मृत्यु की वक्र रेखा जीवन और मृत्य में क्या भिन्नता है ? हम कहते हैं-'जीवन से स्पन्दित' / - इसका अर्थ क्या है ? इसके विपरीत ये शब्द हैं-'मृत्यु की तरह शान्त।' वस्तुतः जीवन स्पन्दनशील है क्योंकि जीवित पदार्थ भीतरी और बाहरी आघातों के कारण, जिन्हें साधारणतया आन्तरिक उद्दीपना एवं बाह्य उद्दापना कहा जाता है, सदैव स्पन्दित रहता है। किन्तु आन्तरिक और बाह्य उद्दीपना यथार्थ में एक ही है, केवल दृष्टिकोण भिन्न है / जो कुछ जीवित अंगों के अन्दर है, वह याहर से ही आता है / जीवन के आदिकालिक (Primordial) बिन्दु में बाह्य विश्व से शक्ति मानो उँडिलती चली आती है। एक एकाकी कोशिका से जीवन अपनी जमापूजी आरम्भ करता है और पदार्थ तथा शक्ति के संग्रह के साथ-साथ इसकी वृद्धि होती है और यह बढ़ता चला जाता है। अर्जित धन के चिह्न हैं-वृद्धि और विस्तार / पूर्ण वयस्क होने पर आय और व्यय का संतुलन हो जाता है / इसके पश्चात् पुनः प्राप्ति से अधिक क्षय की अवस्था आती है और अन्त में दिवालियापन और मृत्यु / कोई भी प्राणी जब तक अपने पर्यावरण की शक्तियों के प्रति अनुक्रियाशील रहता है, वह सक्रिय रूप में जीवित रहता है / वह आधात देने वाली उद्दीपना का उत्तर संकुचन, ऐंठन या फड़कन के द्वारा देता है / जो कुछ वह पाता है, वह सब दे दे यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि अनिवार्य उद्दीपना की शक्ति का कुछ अंश यह संचित कर लेता है। इस प्रकार जब बूंद-बूंद इकट्ठा होकर शक्ति का आधिक्य हो जाता है, तो यह स्वतःस्फूर्ति चेष्टाओं के माध्यम से छलकने लगती है। आगे एक अध्याय में इस प्रक्रिया का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया जायगा। वनस्पति-एक यन्त्र भौतिक दृष्टि से प्राणी या वनस्पति की तुलना ईंधन से पूर्ण एक कृष्मा-यंत्र (Heat engine) से की जा सकती है / यह यन्त्र कितने सुचारु रूप से कार्य कर रहा है, इसे जानने के लिए हम इसमें एक यन्त्र, जैसे मेरा अभिलेख उत्तोलक, लगा सकते
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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