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________________ 58 वनस्पतियों के स्वलेख वह मर भी सकता है और विष द्वारा मृत्यु शीघ्र होती है। तब अनुक्रिया की नाड़ियां मन्द पड़ने लगती हैं और अन्ततः समाप्त हो जाती हैं / क्या विश्वास किया जा सकता है कि हम इसी प्रकार विष देने से धातु को भी 'मार' सकते हैं ? चित्र ३८--धातु की अनुक्रिया पर विष का प्रभाव, एक मन्द मात्रा अभि. __क्रिया को बढ़ाती है, दीर्घ मात्रा समाप्त करती है। भले ही यह आश्चर्यजनक लगे किन्तु विष का प्रयोग करने पर विद्युत्-अनुक्रिया एकदम समाप्त हो जाती है / अब केवल एक विचित्र घटना बचती है, जो न केवल दैहिकी अनुक्रिया के अन्वेषण में बल्कि भेषज-वृत्ति (Medical practice) में भी पायी जाती है, वह यह कि एक ही भेषज को अधिक या कम मात्रा में देने पर दो भिन्नभिन्न विपरीत प्रभाव उत्पन्न करती है। अकार्बनिक अन क्रिया में भी आश्चर्यजनक रूप से ऐसा ही मिलता है। कम मात्रा में विष अनु क्रिया को बढ़ाता है और अधिक मात्रा में उसे विनष्ट कर देता है (चित्र 38) / इस प्रकार हमने जीव और निर्जीव के स्वलिखित अभिलेख की परीक्षा कर ली। ये स्वलेख कितने समान हैं ? यहाँ तक कि हम दोनों का भेद नहीं बता सकते। हमने अनुक्रियात्मक नाड़ियों को दोनों में ही बढ़ते-घटते देखा है। हमने जीवित और निर्जीव दोनों ही में अनुक्रिया को श्रान्ति में लुप्त होते, उद्दीपना में बढ़ते हुए और विष द्वारा विनष्ट होते हुए देखा है। ___ यह प्रत्यक्ष है; तब हम कैसे एक सीमा निर्धारित करके यह कह सकते हैं कि "यहाँ से भौतिक प्रणाली का और यहाँ से दैहिक प्रणाली का प्रारम्भ होता है" ? यह सीमांकन प्रायः असम्भव है।
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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