________________ अध्याय 8 अकार्बनिक पदार्थों की अनुक्रिया पिछले अध्यायों के परिणामों से ज्ञात होता है कि प्राणी और वनस्पति की जीव-रचना की अभिक्रिया ओंमें एक अविच्छिन्नता विद्यमान रहती है। इससे सिद्ध होता है कि जीवन के नियम एक से हैं / इस अविच्छिन्नता का अध्ययन करने पर कुछ लोग अवश्य ही मनुष्य की तुलना अमीवा (Amoeba) से करने लगेंगे और यह सोचने लगेंगे कि उच्च जीवों के सब जटिल अंग सामान्य जीवों में नहीं मिलते / इस विषय में तथ्य तो यह है कि निम्नतम से उच्चतम तक एक सतत उद्विकास (Evolution) होता रहा है और उसी मात्रा में जटिलता भी बढ़ती रही है। . साधारण यन्त्र जल्दी नहीं बिगड़ता और जीवनयन्त्र सरलतम यन्त्र है . जो जल्दी नहीं बिगड़ता। इसीलिए एककोशी (Unicellular) जीव वस्तुत: अमर होते हैं / बहुत से आक्वाथज कीट (Iufusoria) प्रकटतः सूखकर मर जाते हैं, किन्तु ये जीव एक बूद पानी पाकर फिर से जीवित हो उठते हैं और जोरों से तैरने लग जाते हैं / उच्च जीवों की तरह जब जटिलता अधिक होती है, तब कोई भी स्थानीय अव्यवस्था यन्त्र को निष्क्रिय कर देती है और उच्चतर उद्विकास का परिणाम होता है-मृत्यु / क्या हम जीवन-क्रम के और नीचे के स्तरों की ओर अग्रसर हो सकते हैं, और किसी अजैव या अकार्बनिक पदार्थ तक पहुँचकर उसमें उद्दीपना का कुछ आभास पा सकते हैं, जो अब तक जीवित पदार्थों का ही विशेष लक्षण माना जाता रहा है? तब क्या पदार्थों में भी जीवन-शक्ति अथवा उसकी सम्भावना है ? अन्यथा पृथ्वी पर सर्वप्रथम जीवन का आविर्भाव कैसे हुआ ? जब पृथ्वी केवल एक पिघला हुआ द्रव्यमान (Molten mass) मात्र थी तो आज हम जिसे जीवन मानते हैं वैसी कोई चीज उस समय इस पर होना सम्भव नहीं थी। ऐसा सुझाव दिया गया है कि पृथ्वी पर जीवनबीज अन्य संसारों से ब्रहमाण्ड-धूलि (Cosmic dust) द्वारा लाया गया था। किन्तु यह केवल कठिनाई को थोड़ा और पीछे ले जाता है। सम्भवत: पृथ्वी के इतिहास के किसी काल विशेष में पर्यावरण की स्थिति ऐसी हो गयी होगी जो निर्जीव से जीव की उत्पत्ति के अनुकूल रही होगी।