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________________ वनस्पति-लिपि अधिक परिष्कृत अभिलेखकों द्वारा समय का अन्तर एक सेकेण्ड के हजारवें भाग तक माप लेना सम्भव है। अब यह समझा जा सकता है कि कैसे प्रतिस्वन-अभिलेखक यन्त्र द्वारा न केवल संघर्षण-सम्बन्धी कठिनाई ही दूर हो जाती है, बल्कि अभिलेख द्वारा ही समय का भी माप हो जाता है, अपेक्षित अन्तराल चाहे कितने ही संक्षिप्त क्यों न हों। इस प्रकार एक निश्चित परीक्षणात्मक उद्दीपन के उत्तर में वनस्पति से स्वयं मैं एक उत्तरात्मक लिपि लिखवाने में सफल हुआ हूँ, और परिणाम किसी व्यक्तिगत पक्षपात से प्रभावित न हो इसलिए ऐसी व्यवस्था की गयी कि अभिलेखक-यन्त्र में उपयुक्त पौधे को सर्वथा स्थायी उद्दीपना द्वारा अपने आप उद्दीप्त किया जाय,और वह अपना मुक्ति-काल पूर्ण कर अपनी अनुक्रिया का उल्लेख करे और पर्यवेक्षक की ओर से उसी चक्र की, बिना किसी सहायता या बाघा से, पुनरावृत्ति करता रहे। चित्र 7 सम्पूर्ण यन्त्र दिखाता है। सचेतन और सामान्य वनस्पति हम वनस्पति-जगत् को अचेतन मानने के अभ्यस्त हैं जिसके लाजवन्ती और कुछ दूसरे पौधे अपवाद माने जाते हैं / वनस्पति को इन दो भागों में बाँटने का कारण . यह है कि लाजवन्ती आघात पाकर सक्रिय गति दिखाती है किन्तु अन्य पौधे प्रत्यक्षतः निष्क्रिय और अचल दिखाई देते हैं / तब भी क्या इस चर-गति की अनुपस्थिति का कारण चेतन शीलता की कमी है या किसी विरोधी शक्ति का होना है जो गति को प्रत्यक्ष होने से रोकती है। ___ कल्पना कीजिये कि एक ही डील-डौल एवं शक्ति वाले दो व्यक्ति एक-दूसरे की पीठ से बंधे हैं, और उन पर एक साथ प्रहार किया जाता है / हरेक सामने झुकने का प्रयत्न करेगा और इस प्रकार एक, दूसरे की गति का अवरोध करेगा। तब क्या हमारा इन दोनों व्यक्तियों का आघात के प्रति अचेतन मानना उचित होगा? .. अब लाजवन्ती की गति के विषय में देखिये / हम एक क्षण के लिए सोच लें कि यदि लाजवन्ती के पीनाधार का उर्ध्व अर्ध उतना ही संवेदनशील होता जितना उसका निम्नार्ध तो इसका परिणाम क्या होता। दोनों भाग विरोधी पेशियों का कार्य करते और सभी गति रुक जाती। यह विरोधाभास मालम हो सकता है किन्तु लाजवन्ती की इस संवेदनशीलता का कारण यही है कि उसके चर अंग का आधा भाग अपेक्षाकृत निष्क्रिय है / यह ऐसा है जैसे यदि हम अपने मानव सम्बन्धी उदा.
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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