________________ प्राणी और वनस्पति पर ऐलकालायड और नाग-विष की क्रिया - 155 को दो शलाकाओं के बीच में रखा जाता है। इनमें एक स्थिर और दूसरी गतिमान् होती है। दोनों शलाकाएँ दो 'V' आकार के हाथी-दांत के टुकड़े लिये रहती हैं, जो तने के दो व्यासाभिमुख बिन्दुओं R और I का स्पर्श करती हैं। गतिमान् उत्तोलक की आलम्ब-शलाका F रत्नभार (Jewel Bearing) पर आधारित रहती है। यह उत्तोलक-शलाका, साही के काँटों (Porcupine Quill) की बनी होती है जिसमें हलकेपन के साथ-साथ असाधारण मात्रा में दृढ़ता होती है। इसकी निष्क्रि. यता नगण्य होने से यह शीघ्रता से स्पन्दन-गति का अनुगमन करती है। उत्तोलक के . चित्र ८६-वनस्पति हत्त्पन्दलेखी तने पर पार्श्वतः दाब का समायोजन 'S' स्प्रिंग द्वारा उसे आगे या पीछे ले जाकर किया जा सकता है। उत्तोलक की लम्बाई प्रायः तीस गुना प्रवर्धन करती है। (चिन 86) / किन्तु यह स्पन्दन को गोचर बनाने के लिए अत्यधिक अल्प है। इसलिए इससे भी अधिक प्राकशीय प्रवर्धन की आवश्यकता है। रुधिर-दाब-लेखी उत्तोलक के अग्रभाग में रेशम की पतली डोरी बाँध कर एक पतली उदग्र शलाका को जो उपर-नीचे दोनों ओर रत्न-भार पर अवलम्बित रहती है, हम घुमा सकते हैं। डोरी का दूसरा छोर एक पतली सपिल कमानी से जुड़ा होता है जिसके द्वारा तने पर पड़ने वाले स्पर्श-दाब का समायोजन हो सकता है। विस्तार के समय स्पन्द-तरंग 'द्वारा' 'L' उत्तोलक की बाह्य गति उदग्र शलाका को दक्षिणावर्त (Clockwise) दिशा में घुमाती है / संकुचन से वामावर्त (Anti-Clockwise) घूर्णन होता है।