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________________ आन वृक्ष का रुदन 147 के मध्य एक खुला भाग था, जिससे सूर्य की पूर्व से पश्चिम की ओर यात्रा में ठीक एक बजे तने के इस स्रावित भाग पर सूर्य का प्रकाश पड़ता था। इस कारण स्थानीय तापमान बढ़ जाता था। इसके परिणामस्वरूप इसके नीचे के बाह्यक की सक्रियता अत्यधिक बढ़ जाती थी और इस कारण जो स्राव बढ़ा उसके द्वारा छिद्र में संचित रस का स्तर द्रुत गति से बढ़ने लगा। दाब की अत्यधिक वृद्धि से बन्द करने वाला डाट निकल गया और अकस्मात् ही रस का परिवाह हुआ / दिन के अन्त में पत्तों से सूर्य छिप गया और तापमान द्रुत गति से गिरने लगा। इससे वृक्ष का स्राव मन्द हो गया और संध्या समय रुक गया। स्तम्भ की बायीं ओर तरुण काष्ठ या रसदारु निर्विघ्न रहा और वल्क की संचालक कोशिकाओं द्वारा जितना भी जल पार्वतः उसमें दिया गया, वह प्रचूषण करता रहा / इस प्रकार बायीं ओर के रन्ध्र में संचय भी नहीं हुआ, न उसका स्राव ही। - अतः 'रुदन' का कारण था छिद्र में पार्श्वतः दिया हुआ रस, और उसका छिद्र से सावधिक परिवाह / छिद्र को नष्ट कर अरक्षित तल पर कोल्तार का लेप कर देने पर वृक्ष का स्राव रुक गया। ऊपर दिये गये परिणाम प्रमाणित करते हैं कि वल्क की संचालन-गति रस को केवल ऊपर संचालित नहीं करती, बल्कि पार्श्वतः भी करती है। इस प्रकार यह संस्पर्शी तरुण वाहिनियों में, जो जलाशय का कार्य करती हैं, रस का प्रवाह करती है / यह भी प्रमाणित होता है कि तरुण काष्ठ यांत्रिक जलप्रवाह के लिए एक जलमार्ग है और जल को अन्तःक्षेपण की शक्ति सक्रिय वल्क द्वारा मिलती है।
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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