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________________ रस का उत्कर्ष 127 उद्दीपनाओं और विषों के प्रभाव पर ये अनुसन्धान पूरी तरह यह सिद्ध करते हैं कि रस-उत्कर्ष मूलतः जीवित कोशिकाओं की क्रिया द्वारा प्रेरित है, सेवन्तिका हेमपुष्प (Chrysanthemum Coronarium) की एक कटी हुई डाल बिना पानी के रखी गयी। पौधा झुककर दोहरा हो गया, पत्ते सिकुड़ कर मुरझा गये और ऐसा दिखने लगा मानो पौधा मृत हो गया है। किन्तु बहुत ही हलके उद्दीपक से युक्त जल से सींचने पर एक अद्भुत रूपान्तर हो जाता है। अब सक्रिय रस-उत्कर्ष के कारण प्रारम्भिक आशूनता की पुनः स्थापना होती है। झुकी हुई डाल उठ खड़ी होती है और पत्ते शक्ति से अपने स्वाभाविक रूप में पुनः फैल जाते हैं जैसा कि दिये हुए चित्र में दिखाई पड़ता है (चित्र 68) / इस संपरीक्षण में 15 मिनट के थोड़े-से समय में संपूर्ण पुनरुन्नयन हो गया। इसके ठीक विपरीत दूसरा समानान्तर संपरीक्षण था, जिसमें गिरा हुआ स्कंध विषालु फार्मेल्डिहाइड घोल (Formaldehide Solution) द्वारा सींचा गया। यह प्रादर्श फिर कभी पुनर्जीवित नहीं हुआ, बल्कि पूर्ण अचेत होकर एक मरणासन्न ऊतक का कुण्डलित पिण्ड बन गया (चित्र 69) / इसके बाद वाले संपरीक्षण में मैंने कुछ रूपान्तरण किये; परीक्षणान्तर्गत प्रादर्श भी भिन्न था। प्रमुण्ड पुष्प (Centaurea) के पौधे का एक सीधा तना एक बरतन 'P' में रखा गया। बरतन में पोटैसियम सायनाइड का विषघोल था। तभी उसी पौधे का एक झुका हुआ तना 'S' बरतन में, जिसमें एक उद्दीपक (घोल) था, रखा गया। दाहिनी ओर चित्र-युगल में विषमय और उद्दीपक घोलों का विस्मयकारी विपरीत प्रभाव दिखाया गया है। जो प्रादर्श खड़ा था वह विष में पूर्णतः नष्ट हो गया, जब कि गिरा हुआ तना उद्दीपना द्वारा तीव्र उन्नयन का प्रदर्शन करता रहा है (चित्र 70) / जो प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं, वे सिद्ध करते हैं कि रस-उत्कर्ष निश्चय ही जीवित ऊतकों पर निर्भर है, किन्तु जीवित क्रिया की एक अस्पष्ट धारणा ही इस घटना का पूर्ण स्पष्टीकरण नहीं है। इसकी आन्तरिक सक्रियता का स्वरूप-विशेष निर्धारित करना भी आवश्यक है। कैसे यह सक्रियता प्रारम्भ होती है और किस प्रकार रस के परिवहन का निर्दिष्ट संचालन होता रहता है। . इस समस्या के पूर्ण समाधान के लिए मुझे संपरीक्षण की विपरीत प्रणालियां और विभिन्न यन्त्र बनाने पड़े। इन सबके परिणामों द्वारा हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पौधा एक ऐसी यन्त्र-रचना द्वारा चालित है जो प्राणी में रक्त-प्रवाह बनाये रखने वाले यन्त्र की ही तरह है।
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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