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________________ 112 पार्श्व की आशूनता की वृद्धि बतायेगा। इस प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष उद्दीपना के प्रभाव विपरीत हैं। सतत परोक्ष उद्दीपना के प्रभाव से पर्ण का गिरना अब स्पष्ट किया जायगा। प्रकाश की एक पार्श्व उद्दीपना द्वारा समीप में संकुचन और दूरस्थ में विस्तार होता है। दोनों प्रभाव मिलकर उद्दीपन की ओर झुकते हैं (चित्र 62.C) / प्रकाश की ओर के इस स्वाभाविक झुकाव को सकारात्मक सूर्यावर्तन कहते हैं / उद्दीपना की दूसरी प्रणालियों द्वारा भी समान प्रभाव होते हैं। इस प्रकार यदि तन्तु स्पर्श द्वारा एक पार्श्व में उद्दीप्त होता है तो उस पार्श्व की वृद्धि मन्द हो जाती है और विपरीत पार्श्व की वृद्धि स्वाभाविक से अधिक तीव्र हो जाती है / इस प्रकार दोनों विपरीत पावों के प्रभाव उद्दीपना की ओर की गति और आधार के चारों ओर तन्तु के लिपटने के कारण हैं। . इसलिए यह धारणा कर लेना कि भिन्न प्रणालियों द्वारा भिन्न संवेद्यता और प्रतिक्रियाएँ होंगी, आवश्यक नहीं है। सब उद्दीपनाएँ, जब वे प्रत्यक्ष और यथेष्ट तीव्र होती हैं, संकुचन करती हैं / जो साधारण नियम उद्दीपना का निदेशन करते हैं, वे ही संकुचन करते हैं और वृद्धि को घटाते हैं। परोक्ष उद्दीपना द्वारा वृद्धि का विस्तार होता है और वह बढ़ती है। ये नियम सब सकारात्मक आवर्तनों या अंग के उद्दीपना की ओर घूमने को स्पष्ट करते हैं। जब अंग प्रकाश के विपरीत मुड़ता है तो उस घटना को नकारात्मक सूर्यावर्तन कहते हैं और यह धारणा होती है कि अंग में भिन्न प्रकार की एक विशेष संवेद्यता है। किन्तु समान अंग में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों संवेद्यता नहीं हो सकतीं। फिर भी, यदि एक अंग के एक ही पार्श्व को तीव्र प्रकाश में सतत रखा जाता है तो देखा जाता है कि पहले वह प्रकाश की ओर जाता है। अत्यधिक उद्दीप्त अंग उधर से मुड़ने लगता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वह प्रकाश की तीव्रता से बचना चाहता है। इस प्रकार एक ही अंग पहले सकारात्मक सूर्यावर्तित होता है और बाद में नकारात्मक / उद्दीपना से दूर हटकर मुड़ना अंग एक विशेष तीव्रता के प्रकाश की ओर मुड़ता है और उससे अधिक तीव्रता के प्रकाश के विपरीत / पिछले परिणाम का कारण है, अंग के निकटस्य से दूरस्थ पार्श्व तक उद्दीपना का अनुस्रवित होना /
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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